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भारत के प्राचीन जैन तीर्थ
ग्रन्थों में कहा गया है कि राजा शौरि ने अपने लघु भ्राता सुवीर को मथुरा का राज्य सौंपकर कुशार्त देश में जाकर शौरिपुर नगर बमाया । पश्चिम के कुशान नगर से यह भिन्न है।
शौरिपुर या सूर्यपुर कुशात की राजधानी थी। जैन परम्परा के अनुसार यह नगर कृष्ण और उनके चचेरे भाई नेमिनाथ की जन्मभूमि थी।
शौरिपुर यमुना के किनारे बसा था । इसकी पहचान अागरा जिले के सूर्यपर नामक स्थान से की जाती है । यह स्थान यमुना के दाहिने किनारे बटेमर के पास है । श्वेताम्बर आचार्य हीरविजय सूरि के आगमन के समय इस तीर्थ का जीर्णोद्धार किया गया था । बटेसर में बहुत-से शिव-मन्दिर बने हैं और यहाँ कार्तिक महीने में बड़ा मेला लगता है जिसमें बहुत से घोड़े, ऊँट आदि बिकने आते हैं।
प्राचीन ग्रन्थों में शूरसेन का उल्लेख आता है । ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इसे राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने बसाया था। यहाँ की भापा शौरसेनी कही जाती थी । मथुरा के ग्रामपास का प्रदेश शूरसेन कहा जाता है ।
शूरसेन की राजधानी मथुरा थी । उत्तरापथ का यह महत्त्वपूर्ण नगर था । महाभारत के अनुसार मथुरा यादवों की भूमि थी। कंसवध के पश्चात् जरासंध के भय से यादव लोग मथुरा छोड़कर पश्चिम की ओर चले गये और वहाँ उन्होंने द्वारका नगरी बसाई ।
बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि मधुरा के अन्तर्गत ६६ गाँवों के रहने वाले लोग अपने घरों और चौराहों पर जिन भगवान् की प्रतिमा स्थापित करते थे । यहाँ एक सोने का स्तूप था, जिस पर जैन और बौद्धों में झगड़ा हुआ था। कहते हैं कि अन्त में इस स्तूप पर जैनों का अधिकार हो गया। रविपेण के बृहत्कथाकोश तथा सोमदेव सूरि के यशस्तिलक चम्पू में इसे देवनिर्मित स्तूप कहा गया है। राजमल्ल के जम्बूस्वामी चरित में मथुरा में ५०० स्तूपों का उल्लेख है, जिनका उद्धार अकबर बादशाह के समकालीन साहू टोडर द्वारा किया गया था। मथुरा का प्राचीन स्तूप आजकल कंकाली टीले के रूप में मौजूद है, जिसकी खुदाई से पुरातत्त्व संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता लगा है।
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