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जैन श्रमण -संघ और जैन धर्म का प्रसार
पानी से होते हैं, कहाँ कुँए के पानी से होते हैं, कहाँ नदी की बाढ़ से होते हैं
और कहाँ नाव में रोपे जाते हैं । इसी प्रकार साधु को यह जानना आवश्यक है कि किस देश में व्यापार - बनिज से ग्राजीविका चलती है, कहाँ खेती से आजीविका होती है, तथा कहाँ के लोग मांस-भक्षी होते हैं और कहाँ निरामिष-भोजी। ____ कहना न होगा कि जैन श्रमणों ने भयङ्कर कष्टों का सामना कर अपने सिद्धान्तों का प्रसार किया था। उस समय मार्ग में भयानक जङ्गल पड़ते थे, जो हिंस्र जंतुओं से परिपूर्ण थे। रास्ते में बड़े बड़े पर्वत और नदी-नालों को लाँघ कर जाना पड़ता था। चोर - डाकुओं के उपद्रव और राज्योपद्रव भी कम नहीं थे । वसति ( ठहरने की जगह ) तथा दुर्भिक्ष- जन्य उपद्रवों की भी कमी नहीं थी। ऐसी दशा में देश - देशान्तर में घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार करना साधारण बात न थी।
लेकिन कुछ समय पश्चात् जैन श्रमणों को राजा संप्रति (२२०-२११ ई.पू.) का आश्रय मिला और जैन भिक्षु बिहार, बङ्गाल और उत्तरप्रदेश की सीमा का उल्लङ्घन कर दूर दूर तक विहार करने लगे। जैन सूत्रों के अनुसार राजा सम्प्रति नेत्रहीन कुणाल का पुत्र था, जो सम्राट चन्द्रगुप्त (३२५-३०२ ई. पू.) का प्रपौत्र, बिन्दुसार का पौत्र तथा अशोक (२७४ - २३७ ई० पू० ) का पुत्र था। अवन्ति का राजा सम्प्रति आर्य सुहस्ति के उपदेश से जैन श्रमणों का उपासक और जैन धर्म का प्रभावक बना था । राजा सम्प्रति ने नगर के चारों दरवाज़ों पर दानशालाएँ खुलवाकर जैन श्रमणों को भोजन-वस्त्र देने की व्यवस्था की थी। उसने अपने आधीन आसपास के सामन्त राजाओं को निमन्त्रित कर उन्हें श्रमण संघ की भक्ति करने को कहा । सम्प्रति अपने कर्मचारियों के साथ रथयात्रा महोत्सव में सम्मिलित होता और रथ के सामने विविध पुष्य, फल, वस्त्र, कौड़ियाँ आदि चढ़ाकर अपने को धन्य मानता था । राजा सम्प्रति ने अपने भटों को शिक्षा देकर साधुवेष में सीमान्त देशों में भेजा, जिससे जैन श्रमणों को निर्दोष भिना का लाभ हो सके। इस प्रकार सम्प्रति ने
आन्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र, कुडुक्क (कुर्ग ) श्रादि देशों को जैन श्रमणों के सुखपूर्वक विहार करने योग्य बनाया । ___ इस समय से निम्नलिखित साढ़े पच्चीस देश आर्य देश माने जाने लगे, और इन देशों में जैन श्रमणों का विहार होने लगा :
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