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भारत के प्राचीन जैन तीर्थ
मंत्रियों को किसी योग्य स्थान की तलाश करने भेजा, और यहाँ एक सुन्दर पाटलि का वृक्ष देखकर पाटलिपुत्र नगर बमा या। बौद्धों के महावग्ग के अनुमार, अजातशत्रु के मन्त्री सुनीध और वर्षकार ने वैशालिनिवासी बजियों के अाक्रमण से बचने के लिए इस नगर को बमाया था ।
पाटलिपुत्र की गणना सिद्धक्षेत्रों में की गई है। पाटलिपुत्र जैन साधुओं का केन्द्र था । यहाँ जैन श्रागमों के उद्धार के लिए जैन श्रमणों का प्रथम मम्मेलन हुआ था, जो पाटलिपुत्र-वाचना के नाम से प्रसिद्ध है। राजा उदायि ने यहाँ जैन मन्दिर बनवाया था। पाटलिपुत्र में शकटार मन्त्री के पुत्र मुनि स्थूलभद्र कोशा गणिका के घर रहे थे और उन्होंने धर्मोपदेश देकर उसे श्राविका बनाया था। इस नगर में भद्रबाहु, आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ति, वज्रस्वामी
और उमास्वाति वाचक ने विहार किया था । यूनानी यात्री मेगस्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के सम्राट अशोक के राजभवन का वर्णन किया है । फाहियान के समय ईसा की पाँचवीं शताब्दि तक यह भवन विद्यमान था ।
पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था । यह नगर व्यापार का बड़ा केन्द्र था । पाटलिपुत्र और सुवर्णभूमि ( बरमा) में व्यापार होता था । जब हमनमांग यहाँ अाया तो यद नगर एक साधारण गाँव के रूप में विद्यमान था ।
नालन्दा राजगृह के उत्तर-पूर्व में अवस्थित था । बौद्ध सूत्रों में राजगृह और नालन्दा के बीच में एक योजन का अन्तर बताया गया है। बीच में अम्बलहिका नामक वन पड़ता था। प्राचीन काल में नालन्दा बड़ा समृद्धिशाली नगर था, जो अनेक भवन और बाग़-बगीचों से मंडित था । भिक्षुओं को यहाँ यथेच्छ भिक्षा मिलती थी। बुद्ध, महावीर और गोशाल ने नालन्दा में विहार किया था ।
नालन्दा के उत्तर-पश्चिम में सेसदविया नाम की एक प्याऊ (उदकशाला) थी, जिसके उत्तर-पश्चिम में हस्तिद्वीप नाम का उपवन था । यहाँ महावीर के प्रधान गणधर गौतम ने सूत्रकृतांग नामक जैन सूत्र के अन्तर्गत नालन्दीय नामक अध्ययन की रचना की थी।
१३वीं सदी तक नालन्दा बौद्ध विद्या का महान् केन्द्र था। चीन, जापान, तिब्बत, लङ्का आदि से विद्यार्थी यहाँ विद्याध्ययन के लिये आते थे। चीनी यात्री हुअन-सांग ने यहीं रह कर विद्या पढ़ी थी । बौद्धों के यहाँ अनेक विहार थे । नालन्दा में अनेक चित्रकार और शिल्ग रहते थे । नेपाल और बरमा के
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