Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal View full book textPage 7
________________ भारत के प्राचीन जैन तीर्थ गोते लगाये, जिससे आगे चल कर भूगोल भी धर्मशास्त्र का एक अङ्ग बन गया और वह केवल श्रद्धालु भक्तों के काम की चीज़ रह गई। प्राचीन तीर्थों के विषय में चर्चा करते हुए दूमरी महत्त्वपूर्ण बात दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध में है। प्राचारांग आदि जैन सूत्रों से स्पष्ट है कि महावीर के समय सचेल और अचेल दोनों प्रकार के श्रमण जैन संघ में रह सकते थे, यद्यपि स्वयं महावीर ने जिनकल्य-अचेलत्व-को ही अंगीकार किया था । उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत केशी-गौतम संवाद नामक अध्ययन में पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार के प्रश्न करने पर महावीर के गणधर गौतम स्वामी ने उत्तर दिया है कि "हे महामुने, साध्य की सिद्धि में लिङ्ग-वेष—केवल बाह्य साधन है, असली तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं।" जान पड़ता है कि महावीर के बाद भी जैन श्रमणों में अचेल (दिगम्बर) रहने की प्रथा जारी रही। श्वेताम्बर ग्रन्थों से पता लगता है कि प्राचार्य स्थूलभद्र के शिष्य प्राचार्य महागिरि ने आर्य सुस्ति को अपने गण का भार सौंप कर जिनकल्प धारण किया। इसी प्रकार पार्यरक्षित ने जब अपने कुटुम्ब को दीक्षा देनी चाही तो उनके पिता ने दीक्षा ग्रहण करते हुए संकोच व्यक्त किया कि उन्हें अपनी पुत्री और पुत्र-वधुत्रों के समक्ष नग्न अवस्था में रहना पड़ेगा ! तत्पश्चात् बृहत्कल्प भाष्य (ईसवी सन् की लगभग चौथी शताब्दि) से पता लगता है कि महाराष्ट्र में जैन श्रमणों के नग्न रहने की प्रथा थी और इन्हें लोग अपशकुन मानते थे । भारतीय मूर्ति-कला के अध्ययन से पता लगता है कि सबसे पहले मौर्यकालीन यक्षों की मूर्तियाँ निर्माण की गई थीं। जैन और बौद्ध सूत्रों में अनेक यक्ष-मन्दिरों (यक्षायतन ) के उल्लेख मिलते हैं जहाँ महावीर और बुद्ध अपने विहार-काल में ठहरा करते थे । ये यक्ष ग्राम या नगर के रक्षक माने जाते थे। छोटे-बड़े सब लोग इनकी पूजा-उपासना करते थे। यक्षों में सबसे प्राचीन मूर्ति मणिभद्र (प्रथम शताब्दि ई० पू० ) की उपलब्ध हुई है । यक्षों के पश्चात् बोधिसत्त्व, बुद्ध और जिन की मूर्तियाँ निर्माण की जाने लगीं। राजा कनिष्क के समय की ये मूर्तियाँ मथुरा में उपलब्ध हुई हैं । बोधिसत्त्व की प्राचीनतम मूर्ति ईसवी सन् ८ की मिली है । मथुरा के कङ्काली टोले में जो आयाग पट पर लगभग २००० वर्ष प्राचीन जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं वे नग्न अवस्था में हैं तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों द्वारा पूजी जाती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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