Book Title: Bharat ke Prachin Jain Tirth
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Jain Sanskriti Sanshodhan Mandal

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Page 6
________________ प्रास्ताविक इतिहास से पता चलता है कि अन्य विज्ञानों की तरह भूगोल का विकास भी शनैः शनैः हुआ । ज्यों ज्यों भारत का अन्य देशों के साथ बनिज-व्यापार बढ़ा, और व्यापारी लोग वाणिज्य के लिये सुदूर देशों में गये, उन्हें दूसरे देशों के रीति-रिवाज, किस्से-कहानियाँ आदि के जानने का अवसर मिला, और स्वदेश लौट कर उन्होंने उस ज्ञान का प्रचार किया। वर्ष में आठ महीने जनपद-विहार के लिये पर्यटन करने वाले जैन, बौद्ध आदि श्रमणों तथा परिवाजकों ने भी भारत के भौगोलिक ज्ञान को वृद्धिंगत किया । जैन आगम ग्रन्थों की टीका-टिप्पणियों तथा बौद्धों की अटकथाओं में उत्तरापथ, दक्षिणापथ आदि के रीति-रिवाज, रहन-सहन, खेती-बारी आदि के सम्बन्ध में जो उल्लेख पाते हैं उनसे उक्त कथन का समर्थन होता है। __खोज-बीन से पता लगता है कि जिस भूगोल को हम पौराणिक अथवा काल्पनिक समझते हैं वह सर्वथा काल्पनिक प्रतीत नहीं होता । उदाहरण के लिये, जैन भूगोल की नील पर्वत से निकल कर पूर्व समुद्र में गिरनेवाली सीता नदी की पहचान चीनी लोगों की सि-तो (Si-to) नदी से की जा सकती है, जो किसी समुद्र में न मिलकर काशगर की रेती में विलुप्त हो जाती है । इसी तरह बौद्ध ग्रन्थों से पता लगता है कि जम्बुद्वीप भारतवर्ष का और हिमवत हिमालय पर्वत का ही दूसरा नाम है। ज्ञाताधर्म कथा के उल्लेखों से मालूम होता है कि प्राचीन काल में हिन्द महासागर को लवणसमुद्र कहा जाता था। इसी प्रकार खोज करने से अन्य भौगोलिक स्थानों का पता लगाया जा सकता है। बात यह हुई कि आजकल की तरह प्राचीन काल में यात्रा आदि के माधन सुलभ न होने के कारण भूगोल का व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो सका। परिणाम यह हुआ कि जब दूरवर्ती अदृष्ट स्थानों का प्रश्न अाया तो संख्यात, असंख्यात योजन आदि की कल्पना कर शास्त्रकारों ने कल्पना-समुद्र में खूब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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