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भारत का भविष्य
आकर्षित होने वाला भीतर से गुनाह से भरा होता है। असल में गिल्टी कांसियंस तीर्थ की तरफ ले जाती है। वह जो अपराध से भरा हुआ चित्त है वह कहता है चलो तीर्थ, वह कहता है चलो मंदिर, वह कहता है चलो साधु के पास। यह जो हमारी धार्मिकता है जिसके लिए हम सारी दुनिया में ढिंढोरा पीटते हैं कि हम धार्मिक हैं, वह हमारी धार्मिकता नहीं है। हमारे भीतर अपराध का प्रकटन है। वह जो गिल्ट है हमारे भीतर उसकी वजह से हम धार्मिक होने के हजार उपाय करते हैं। धार्मिक हम बिलकुल नहीं हैं। अब तक दुनिया में कोई समाज धार्मिक नहीं बन सका। कुछ व्यक्ति धार्मिक हुए हैं इंडिविजुअल, सोसाइटी कोई धार्मिक पैदा नहीं हो सकी है। लेकिन हिंदुस्तान के समाज को यह खयाल है कि हमारा धार्मिक समाज है। क्यों? क्योंकि हम एक कृष्ण को पैदा कर लेते हैं, एक नानक को पैदा कर लेते हैं, एक कबीर को पैदा कर लेते हैं। ये व्यक्ति हैं, और हम इन सबका मजा लेते हैं कि हमारा पूरा समाज धार्मिक हो गया। हम धार्मिक नहीं हैं। लेकिन यह भ्रम हमारा न टूटे तो हम धार्मिक कभी हो भी न सकेंगे। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन समाजों को हम कहते हैं अधार्मिक, वे हमसे ज्यादा धार्मिक सिद्ध हो रहे हैं। और हम अपने को कहते हैं धार्मिक, और हमसे ज्यादा इस समय अनैतिक समाज पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। हमसे ज्यादा करप्टेड आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। और हमारे करप्शन का, हमारे व्यभिचार का, हमारी अनीति का पहला आधार यह है कि हम सबने मान रखा है कि हम धार्मिक हैं। इसलिए हमें अधार्मिक होने की जितनी सुविधा मिल गई उतनी किसी को भी नहीं मिली। अगर कोई बीमार आदमी समझ ले कि मैं स्वस्थ हूं तो वह इलाज भी बंद कर देगा। बीमार के इलाज के लिए यह जरूरी है कि वह समझे कि मैं बीमार है, और जितनी तीव्रता से समझे कि गहरी बीमारी है, उतने जल्दी इलाज का इंतजाम करेगा। हम ऐसे बीमार हैं जो अपने को स्वस्थ मान कर बैठे हुए हैं। इसलिए इलाज की भी कोई जरूरत नहीं है। जब भी हम इलाज की बात करते हैं तो हम ऐसा करते हैं कि दुनिया को सिखाना है। हिंदुस्तान भर का यह खयाल है कि हमें दुनिया को सिखाना है, सारी दुनिया हमारी तरफ देख रही है। और हमारे पास देखने को क्या है यह हम कभी सोचते भी नहीं है। सारी दुनिया हमसे उपदेश लेने को तैयार मालूम पड़ती है हमको। और हम कहां खड़े हैं हमें कोई खयाल भी नहीं। लेकिन ये सारी की सारी बातें हमारी बीमारी को बचाने का कारण बन जाती हैं। तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं वह यह, अतीत के लोग हमसे बेहतर थे भी नहीं। और अगर बेहतर होते तो हम उनसे ही पैदा हुए हैं। हम उनकी गवाहियां हैं। किताबें गवाहियां नहीं हैं, हम गवाहियां हैं। आदमी गवाह होता है, किताबें गवाह नहीं होती हैं। हम गवाही देते हैं, हर बेटा अपने बाप की गवाही देता है। और हर बेटा अपने बाप के ऊपर प्रमाण बन जाता है कि बाप कैसा रहा होगा। जब हम किसी फल को देखते हैं वृक्ष के, तो बीज के संबंध में पता चल जाता है। जानते हैं फल को देख कर कि बीज कैसा रहा होगा। और फल हो सड़ा हुआ और कहें कि हम बहुत स्वस्थ बीज से पैदा हुए हैं, तो कौन उसका भरोसा करेगा। हम बताते हैं कि पीछे का समाज कैसा रहा होगा—हम उससे ही पैदा हुए हैं, हम उससे ही आए हैं। हम अपने को देख कर भी समझ सकते हैं कि पीछे का समाज बेहतर नहीं रहा होगा। यह एक बार हमें साफ हो जाए तो हम बेहतर समाज को पैदा करने की कोशिश में लग जाएं। लेकिन अगर हमने यह मान रखा है कि बेहतर समाज हो चुका, तो अब पैदा करने की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ पुराने समाज
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