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भारत का भविष्य
नहीं हो सका, क्योंकि हमने बुनियादी रूप से जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया। भौतिक और आध्यात्मिक, ऐसे दो जीवन नहीं हैं। शरीर और आत्मा, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व इकट्ठा है। और मनुष्य का जो व्यक्तित्व है वह साइकोसोमेटिक है, वह शरीर भी है और आत्मा भी है। बल्कि अच्छा होगा यह कहना कि मनुष्य का व्यक्तित्व एक्स है। जिसका एक रूप शरीर में प्रकट होता है और एक रूप आत्मा में प्रकट होता है। मनुष्य दोनों का जोड़ है यह कहना भी गलत है। क्योंकि इसमें हम दो को मान लेते हैं। ये मनुष्य के दो अभिव्यक्तियां हैं, ये दो रूप हैं मनुष्य के, जो एक तरफ शरीर बनता है और एक तरफ आत्मा की तरफ प्रकट होता है। यह जगत और परमात्मा दो नहीं, यह जगत और परमात्मा एक है। जिस दिन हम ऐसा देख पाएंगे,
और जिस दिन हम ऐसा देख कर एक स्वस्थ, बीमार संस्कति नहीं, स्वस्थ, ऐसी संस्कति जो जीवन को स्व करती है, उसके आधार रख पाएंगे। जो भौतिकवाद को स्वीकार करती है और अध्यात्म को भी। जो शरीर को स्वीकार करती है और आत्मा को भी। और जो धन को स्वीकार करती है और धर्म को भी। जो निंदा नहीं करती, इंकार नहीं करती, जिसकी धारा में सभी कुछ आत्मसात हो जाता है, ऐसी सर्वग्राही, टोटल एक्सेप्टबिलिटी वाली संस्कृति को अगर हम जन्म न दे पाए तो इस पृथ्वी पर हमारे चरण बहुत दिन तक टिके नहीं रहेंगे। अभी भी टिके नहीं हैं, हजारों साल से भटक रहे हैं। हमारे पैर मजबूती से जमीन पर खड़े नहीं हैं। खड़े हम हो नहीं पा रहे हैं। गिरते हैं रोज। इतने गिरे हैं कि धीरे-धीरे हमने मान लिया कि हमारा भाग्य है, इसलिए हमने प्रयास भी छोड़ दिया है अब कुछ करने का। यह हमारा भाग्य है। गुलाम होते हैं तो भाग्य है, गरीब होते हैं तो भाग्य है। सारी दुनिया बदली जा रही है, हम भाग्य को पकड़ कर बैठे हुए हैं। अभी पिछले दिनों बिहार में अकाल पड़ा था। अंदाज था कि उस अकाल में एक करोड़ से लेकर दो करोड़ तक लोग मर सकते थे। लेकिन मरे भूख में केवल चालीस लोग। क्योंकि सारी दुनिया सहायता के लिए दौड़ पड़ी। अगर दुनिया न आती तो एक करोड़ आदमी मरते। हम कहते, भाग्य। चालीस मरे तो हमने यह न कहा कि एक करोड़ लोग सारी दुनिया ने बचाए। हमने दुनिया को कोई धन्यवाद भी नहीं दिया। हमने कहा, भाग्य। बच गए तो भाग्य है, मर जाते तो भाग्य है। असल में जब कोई कौम सारी तरह की हिम्मत खो देती है तो भाग्यवादी हो जाती है, फैटेलिस्ट हो जाती है। आखिरी बात आपसे कह रहा हूं, अतीत से मुक्त हों, भविष्य के निर्माण के लिए अतीत से स्वर्ण युग को हटाएं। स्वर्णयुग आगे है, बीत नहीं गया, आएगा, आएगा नहीं लाना पड़ेगा। जिंदगी को पूरा का पूरा स्वीकार करें, अधूरा नहीं। अधूरी जिंदगी जैसी कोई चीज नहीं होती, जिंदगी है तो पूरी है, अपने सब रूपों में ग्रहण करनी पड़ेगी। ऐसा न करें कि संगीत को स्वीकार करें और वीणा को इंकार करें। कहें कि वीणा तो भौतिक है, संगीत आध्यात्मिक है। तो संगीत तो हम स्वीकार करते हैं, वीणा का इंकार करते हैं। वीणा के बिना संगीत पैदा नहीं होगा। वीणा ही संगीत पैदा कर सकेगी। वह जो भौतिक है अध्यात्म को पैदा होने की पासिबिलिटी है। वह जो शरीर है वह आत्मा के फूल के खिलने की भूमि है। वह जो प्रकृति है वह परमात्मा के प्रकट होने का अवसर है। समग्र
वन को स्वीकार करें और भाग्य शब्द को भारत के शब्दकोश से अलग करने की कोशिश करें। उसने हमें डुबाया है, उसने हमें मारा है, उसने हमें नष्ट किया है। भाग्य नहीं, हम, और हम का मतलब हमारे भीतर छिपा
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