Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 134
________________ भारत का भविष्य समाज की धारणा कि सारा समाज सुख-दुख में सहभागी है कि सारा समाज जैसा है वैसा व्यक्ति को भोगना पड़ता है, समाज के साथ जीना और निर्मित होना पड़ता है। वह धारणा हमने विकसित नहीं की। हिंदुस्तान ने एक सेल्फ-सेंटर्ड, एक-एक व्यक्ति को आत्म- केंद्रित बना दिया । समाज-केंद्रित, समाज से संबंधित धारणा हमने विकसित नहीं की । स्वभावतः एक-एक व्यक्ति इतने बड़े समाज को बदलने में असमर्थ है, जब तक हम समाज को आमूल, सामूहिक रूप से बदलने का कोई उपाय न करें। इसी बात में एक-एक व्यक्ति को अपना-अपना ध्यान रखना है। एक और नई बात पैदा कर दी। वह बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने पिछले जन्मों, आने वाले जन्मों का विचार करना है। यह जन्म, यह जीवन तो सराय में ठहरने जैसा है, विश्रामालय में थोड़ी देर रुके हैं फिर आगे बढ़ जाना है। हमने जीवन का सम्मान नहीं किया है, हमने जीवन का बहुत अपमान किया है। और ध्यान रहे, जो समाज जीवन का अपमान करेगा, वह समाज जीवन के रस और आनंद को उपलब्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता है। हमने सदा यही कहा कि जीवन है असार, जीवन है व्यर्थ, जीवन है बेकार, जीवन तो किसी तरह गुजार देना है। और स्मरण करते रहना है परमात्मा का कि कब मुझे इस जीवन से छुटकारा मिले? जीवन को हमने धन्यता नहीं माना है। जीवन को हमने अनुग्रह नहीं माना। जीवन को पाकर हम भगवान को धन्यवाद नहीं दिए। हमने क्रोध प्रकट किया है, जीवन के लिए हम पछताए हैं। यह कैसी अजीब दृष्टि ! यह कैसी जीवन-विरोधी ! यह कैसी लाइफ निगेटिव ! यह जीवन के प्रतिकार की, विरोध की, निषेध की कैसी दृष्टि है! और जिसका हम निषेध करेंगे उससे हम कैसे आनंद को, समृद्धि को, वैभव को, ऐश्वर्य को, श्री को उपलब्ध हो सकते हैं? कैसे उपलब्ध हो सकते हैं? मैं एक अदभुत सी हालत देखता हूं कि हम निरंतर कंडेमनेशन में, निंदा में ही लगे रहेंगे। और ध्यान रहे, हम जीवन के प्रति जो दृष्टि लेते हैं, धीरे-धीरे जीवन वैसा ही दिखाई पड़ने लगता है । जीवन हमारी दृष्टि का प्रतिफलन बन जाता है। हम अगर जीवन को बुरा सोचते हैं, निंदनीय, तो धीरे-धीरे जीवन निंदनीय हो जाता है, बुरा हो जाता है। हम कैसा सोचते हैं जीवन के प्रति इस पर ही निर्भर करता है कि जीवन कैसा हो जाएगा । हमारी धारणा जीवन को निर्मित करती है । और अगर हम पांच हजार वर्षों से निरंतर जीवन से शत्रु का व्यवहार किए हैं तो जीवन भी अगर हमारा मित्र न रह गया हो तो इसमें आश्चर्य क्या है? हम प्रत्येक चीज की निंदा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मैं एक गांव में था। मेरे एक मित्र पूर्णिमा की रात थी और मुझे पहाड़ियों में एक जल प्रपात दिखाने ले गए। अदभुत जल-प्रपात था। हम उस जल प्रपात के पास पहुंचे, रास्ते पर गाड़ी रोकी, कोई एक मील पैदल जाना था। पहाड़ियों में प्रपात की गूंज सुनाई पड़ने लगी। उसका निमंत्रण, उसका बुलावा । मैं और मेरे मित्र उतर कर चलने लगे, तो मुझे खयाल आया कि ड्राइवर गाड़ी में भीतर रह गया। मैंने अपने मित्र को कहा कि अपने ड्राइवर को भी बुला लें, वह क्यों इस अंधेरी गाड़ी में बैठा रहे । इतना चांद बरसता है, इतना प्रपात निकट है, इतने जोर से उसकी आवाज आती है, पहाड़ियां बुलाती हैं। उसे बुला लें। में वे हंसने लगे और कहा कि आप ही बुला लें। मैं उनके हंसने का मतलब नहीं समझा। मतलब बाद में समझ आया । मैं उस ड्राइवर के पास गया और मैंने कहा कि दोस्त तुम भी बाहर आ जाओ, चलो हमारे साथ, यहां अंधेरे में बैठे हुए क्या करोगे ? Page 134 of 197 http://www.oshoworld.com

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