Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 169
________________ भारत का भविष्य जाएगा। लेकिन वह मंदिर का शिखर शिखर पर नहीं रखा जाएगा। वह जमीन की गंदगी में पड़ा रहेगा। असल में, जमीन की गंदगी से मंदिर के शिखर को बचाने के लिए कुछ पत्थरों को गंदगी में खड़े रहने की तैयारी दिखानी पड़ती है। उन पत्थरों को आदर देना, क्योंकि उन पत्थरों के कारण ही शिखर आसमान पर उठ पाता है। यह आत्मा की सारी संभावना शरीर के बिना संभव नहीं है। यह शरीर के कारण ही आत्मा ऊंचाइयां छ पाती हैं। शरीर को धन्यवाद लेकिन हम न दे पाए। शरीर को हमने सताया जरूर, हम प्रेम न कर सके। इसलिए शरीर से जो हो सकता था वह नहीं हो पाया। और शरीर के बिना जो हो ही नहीं सकता था उसकी हम बातचीत कर रहे हैं बैठ कर। घरों में लोग आत्मा-परमात्मा की बात करेंगे। लेकिन वह बातचीत होगी। ब्रह्म की चर्चा चर्चा ही रह जाएगी। वह ऐसे ही है जैसे कोई हवाई जहाज में उड़ने की बात करता हो, लेकिन हवाई जहाज बनाने वाले कारखाने न हो, लोहा न हो, इंजीनियर न हो, तो फिर घर में बैठ कर बात की जा सकती है, आंख बंद करके सपने देखे जा सकते हैं। भारत धर्म के सपने देख रहा है। क्योंकि बिना विज्ञान के आधार के धर्म की ऊंचाइयां छुई ही नहीं जा सकती है। भारत त्याग के सपने देख रहा है, क्योंकि त्याग केवल उनके ही लिए है जिनके पास कुछ हो। असल में त्याग गरीब आदमी की क्षमता नहीं है, त्याग गरीब आदमी का सुख नहीं है। त्याग समृद्ध आदमी की आखिरी लग्जूरी, वह आखिरी आनंद है, आखिरी विलास है। असल में, जब कोई महावीर या कोई बुद्ध अपने महल को लात मार कर जंगल में चला जाता है, तो आप यह मत समझना यह उसी जगह पहुंच जाता है जहां जंगल का आदिवासी है? यह उसी जगह नहीं पहुंचता। क्योंकि आदिवासी जंगल में इसलिए है कि महल नहीं बना सका और यह आदमी जंगल में इसलिए है कि महल अब बेमानी हो गए हैं। ये दोनों एक जगह खड़े होकर भी इनके बीच जमीन-आसमान का फासला है। बुद्ध छोड़ सके। छोड़ वही सकता है जिसके पास है। और छोड़ने की क्षमता उस दिन आती है जिस दिन होने की क्षमता इतनी बढ़ जाती है कि अब और होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। असल में, गरीब देश त्यागी नहीं हो सकता, सिर्फ त्याग की बातें कर सकता है। इसलिए हमारे त्यागी को भी आप अगर देखने जाएंगे तो उसकी पकड़ भी त्याग पर नहीं दिखाई पड़ेगी। अभी मैं एक संन्यासी के आश्रम गया। अब वहां बात चल रही है धर्म की, त्याग की, और लोग रुपये चढ़ाते हैं, वे जल्दी से बात बंद करके पहले रुपये को नीचे सरका देते हैं, फिर ब्रह्म की चर्चा शुरू हो जाती है। बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है। रुपये के लिए ब्रह्म की चर्चा को भी रुकना पड़ता है। ठीक ही मालूम होता है। रुकना पड़ेगा। क्योंकि बिना रुपये के ब्रह्म की चर्चा भी नहीं हो सकती है। इसमें में उन संन्यासी को दोष नहीं देता। उनके रुपये सरकाने को दोष नहीं देता। दोष देता हूं उनकी इस वृत्ति को, इस रुपये के खिलाफ वे बोल रहे हैं और इसी रुपये को सरका रहे हैं। हिंदुस्तान जैसा कृपण समाज खोजना मुश्किल है। और हिंदुस्तान जैसा त्याग की बात करने वाला भी कोई समाज नहीं है। अब त्यागी और कृपण के बीच कोई संगति नहीं मालूम पड़ती। हिंदुस्तान की कंजूसी और हिंदुस्तान के त्याग की बातों के बीच कोई संबंध नहीं मालूम पड़ता। Page 169 of 197 http://www.oshoworld.com

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