Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 175
________________ भारत का भविष्य अपनी संभावनाएं और अपने दुख कह सकें। और जहां बेटे बाप को सहानुभूति से सुन सके और जहां बाप बेटों को सहानुभूति से सुन सके। अगर हिंदुस्तान में ऐसा डायलाग पैदा नहीं होता, तो हम नये भारत का निर्माण न कर पाएंगे। भारत नया हो जाएगा, लेकिन नये हो जाने से तो सब कुछ नहीं हो जाता। नया हो जाना दुखद भी हो सकता है, नया हो जाना गलत भी हो सकता है, नया हो जाना और बड़े गड्ढे में गिर जाना भी हो सकता है। हां, कई बार सिर्फ नये हो जाने से भी राहत मिलती है, क्योंकि बदलाहट की राहत होती है। लेकिन थोड़ी देर बाद पता चलता है कि बीमारियां सब अपनी जगह खड़ी हैं या और भयंकर होकर आ गई हैं। आदमी मरघट ले जाते हैं किसी को, अरथी को, तो रास्ते में कंधे बदल लेते हैं। एक कंधा दुखने लगता है तो अरथी को दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। कंधा बदलने से वजन कम नहीं होता, अरथी में कोई फर्क नहीं पड़ता, रास्ता वही का वही होता है लेकिन दूसरे कंधे पर थोड़ी देर राहत मिल जाती है, नया कंधा होता है थोड़ी देर झेल लेते हैं। भारत सिर्फ कंधा तो नहीं बदल लेगा कि बीमारियां सिर्फ कंधा बदल लें और पुरानी बीमारियां नये नाम ले लें और पुरानी शराबें नई बोतलों में भर जाएं? तो भी नया तो हो जाएगा, ऐसा लगेगा कि नया हो गया है। लेकिन नया हो भी नहीं पाएगा कि पता चलेगा कि सब पुराना अपनी जगह खड़ा है। नहीं; भारत को मात्र नया नहीं हो जाना है। भारत को शुभ की दिशा में, सत्य की दिशा में, शांति की दिशा में, शक्ति की दिशा में, आनंद की दिशा में, जीवन की दिशा में, मुक्ति की दिशा में, एक साथ एक संतुलित व्यक्तित्व को पैदा करना है। जिसमें पुराने की भूल न हो, पुराने की सब समृद्धि हो, जिसमें नये की नासमझी न हो, नये का सारा नया ज्ञान हो। एक अभूतपूर्व घटना घट गई है मनुष्य के इतिहास में, इस बीसवीं सदी में, उसकी मैं बात करूं, फिर मैं अपनी बात पूरी कर दूं। और वह घटना यह घट गई है कि आज से कोई दो सौ वर्ष पहले तक दुनिया में आदमी और आदमी के ज्ञान में कभी बहुत फासला नहीं पड़ता था। असल में, आदमी सदा ही अपने ज्ञान के आगे होता था और ज्ञान सदा पीछे होता था। आज से दो सौ साल पहले तक आदमी के पीछे ज्ञान छाया की तरह था। वह आदमी के आगे नहीं होता था सदा आदमी के पीछे होता था। क्योंकि ज्ञान का विकास अति मद्धिम था, उसकी गति बहुत धीमी थी। जीसस के मरने के साढ़े अठारह सौ वर्षों में जितना ज्ञान दुनिया में पैदा हुआ उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में पैदा हुआ। और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान पैदा हुआ उतना पिछले पंद्रह वर्षों में पैदा हुआ। और जितना पिछले पंद्रह वर्षों में ज्ञान पैदा हुआ उतना पिछले पांच वर्षों में पैदा हुआ। अब हम पांच वर्षों में इतना ज्ञान पैदा करते हैं जितना पुरानी दुनिया साढ़े अठारह सौ वर्षों में पैदा करती थी। साढ़े अठारह सौ वर्षों में अनेक पीढ़ियां बदल जाती थीं और ज्ञान धीरे-धीरे बदलता था और आदमी ज्ञान के बदलने की चोट को कभी अनुभव नहीं करता था। वह इतने आहिस्ता बदलता था, आहिस्ता बदलता था कि आदमी उसमें रच-पच जाता था, वह उसका खून बन जाता था। एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था। उसने एक मेंढक को उबलते हुए पानी में डाल दिया, वह मेंढक छलांग लगा कर बाहर निकल गया। क्योंकि उबलने का संघात इतना तीव्र था! फिर उसने उस मेंढक को साधारण पानी में Page 175 of 197 http://www.oshoworld.com

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