Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 151
________________ भारत का भविष्य हमारा नाता है जीवन से और इस जीवन को कैसे जीया जाए, इस जीवन की कला क्या है, वह सिखाने वाला हमें कोई भी न था। धर्म हमें सिखाता था जीवन कैसे छोड़ा जाए ! जीवन कैसे जीया जाए यह बताने वाला धर्म न था। धर्म बताता जीवन कैसे छोड़ा जाए, जीवन कैसे त्यागा जाए, जीवन से कैसे भागा जाए ! इसकी सारी नियम, क से लेकर आखिर तक हमने सारे नियम इससे खोज लिए कि जीवन को छोड़ने की पद्धति क्या हैं। लेकिन जीवन को जीने की पद्धति क्या है? उसके संबंध में धर्म मौन है। परिणाम स्वाभाविक था। जीवन को छोड़ने वाली कौम कैसे धार्मिक हो सकती है। जीना तो है जीवन को । कितने लोग भागेंगे। और जो भाग कर भी जाएंगे वे जाते कहां हैं, संन्यासी भाग कर, साधु भाग कर जाता कहां है, भागता कहां है। सिर्फ धोखा पैदा होता है भागने का। सिर्फ श्रम से भाग जाता है, समाज से भाग जाता है लेकिन समाज के ऊपर पूरे समय निर्भर रहता है। समाज से रोटी पाता है, इज्जत पाता है, समाज से कपड़े पाता है, समाज के बीच जीता है, समाज पर निर्भर होता है। सिर्फ एक फर्क हो जाता है, वह फर्क यह है कि वह विशुद्ध रूप से शोषक हो जाता है, श्रमिक नहीं रह जाता। वह कोई श्रम नहीं करता, सिर्फ शोषण करता है। कितने लोग संन्यासी हो सकते हैं? अगर पूरा समाज भागने वाला समाज हो जाए तो पचास वर्ष में उस देश में एक भी जीवित प्राणी नहीं बचे । पचास वर्षों में सारे लोग समाप्त हो जाएंगे। लेकिन पचास वर्ष भी लंबा समय है, अगर सारे लोग संन्यासी हो जाएं, तो पंद्रह दिन भी बचना बहुत मुश्किल है। क्योंकि किसका शोषण करिएगा, किसके आधार पर जीएगा। भागने वाला धर्म, एस्केपिस्ट रिलीजन, कभी भी जिंदगी को बदलने वाला धर्म नहीं हो सकता। थोड़े से लोग भागेंगे और जो भाग जाएंगे वे उन पर निर्भर रहेंगे जो भागे नहीं हैं। अब यह बड़े चमत्कार की बात है कि संन्यासी गृहस्थ पर निर्भर है और गृहस्थ को नीचा समझता है अपने से, जिस पर निर्भर है उसको नीचा समझता है । उसको चौबीस घंटे गालियां देता है, उसके पाप का व्याख्यान करता है, उसको नरक जाने की योजना बनाता है और निर्भर उस पर है। और अगर ये गृहस्थ सब नरक जाएंगे तो इनकी रोटी खाने वाले, इनके कपड़े पहनने वाले संन्यासी इनके पीछे नरक नहीं जाएंगे तो और कहां जा सकते हैं! कहीं जाने का कोई उपाय नहीं हो सकता । लेकिन भागने की एक दृष्टि जब हमने स्पष्ट कर ली कि जो भागता है वह धार्मिक है। तो जो जीता है वह तो अधार्मिक है। उसको धार्मिक ढंग से जीने का, सोचने का कोई सवाल न रहा । वह तो अधार्मिक है क्योंकि जीता है, भागता जो है वह धार्मिक है। तो जीने वाले को धार्मिक होने का कोई विधान, कोई विधि, कोई टेक्नीक, कोई शिल्प हम नहीं खोज पाए । मेरा कहना है भारत धार्मिक हो सकता है, अगर हम धर्म को जीवनगत, उसे लाइफ अफरमेटिव, जीवन की स्वीकृति का धर्म बनाए, जीवन के निषेध का नहीं । दूसरी बात, धर्म ने एक अतिशय से काम किया। तो वह अति एक वीर संकेत प्रतिक्रिया थी। सारी दुनिया में ऐसे लोग थे जो मानते थे कि मनुष्य केवल शरीर है। शरीर के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। धर्म ने ठीक दूसरी अति, दूसरी एक्सट्रीम पकड़ ली और कहा कि आदमी सिर्फ आत्मा है, शरीर तो माया है, शरीर तो झूठ है। ये दोनों ही बातें झूठ हैं। न तो आदमी केवल शरीर है, न आदमी केवल आत्मा है । ये दोनों बातें समान रूप से झूठ हैं। Page 151 of 197 http://www.oshoworld.com

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