Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 144
________________ भारत का भविष्य लेकिन भारत के लोग इतने भी ईमानदार नहीं है कि वे यह मान लें कि धर्म पुराना हो गया। जान गंवाई जा सकती है उससे लेकिन जीवन नहीं पाया जा सकता। हम थोड़े ज्यादा बेईमान हैं। हम धर्म से सारा संबंध भी तोड़ लिए हैं। लेकिन हम ऊपर से यह भी दिखाने की चेष्टा करते हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं। हमारा कोई आंतरिक नाता धर्म से नहीं रह गया है। हमारे कोई प्राणों के अंतस बंध धर्म से नहीं हैं। लेकिन हम ऊपर से दिखावा जारी रखते हैं । हम ऊपर से यह प्रदर्शन जारी रखते हैं कि हम धर्म से संबंधित हैं, हम धार्मिक हैं। यह और भी खतरनाक बात है । यह अधर्म को छिपा लेने की सबसे आसान और कारगर तरकीब है। अगर यह भी स्पष्ट हो जाए कि हम अधार्मिक हो गए हैं तो शायद इस अधर्म को बदलने के लिए कुछ किया जा सके। लेकिन हम अपने को यह धोखा दे रहे हैं। एक आत्मवंचना में हम जी रहे हैं कि हम धार्मिक हैं और यह आत्मवंचना रोज महंगी पड़ती जा रही है। I किसी न किसी को यह दुखद सत्य कहना पड़ेगा कि धर्म से हमारा कोई भी संबंध नहीं है। हम धार्मिक भी नहीं हैं और हम इतने हिम्मत के लोग भी नहीं हैं कि हम कह दें कि हम धार्मिक नहीं हैं। हम धार्मिक भी नहीं हैं और अधार्मिक होने की घोषणा कर सकें इतना साहस भी हमारे भीतर नहीं हैं। तो हम त्रिशंकु की भांति बीच में लटके रह गए हैं। न हमारा धर्म से कोई संबंध है । न हमारा विज्ञान से कोई संबंध है, न हमारा अध्यात्म से कोई संबंध है, न हमारा भौतिकवाद से कोई संबंध है। हम दोनों के बीच में लटके हुए रह गए हैं, हमारी कोई स्थिति नहीं है। हम कहां हैं यह कहना मुश्किल है क्योंकि हमने यह बात जानने की स्पष्ट कोशिश नहीं की है कि हम क्या हैं और कहां हैं। हम कुछ धोखों को बार-बार दोहराए चले जाते हैं और उन धोखों को दोहराने के लिए हमने तरकीबें ईजाद कर ली हैं, हमने डिवाइसेज बना ली हैं और उन तरकीबों के आधार पर हम विश्वास दिला लेते हैं कि हम धार्मिक हैं। एक आदमी रोज सुबह मंदिर हो आता है और वह सोचता है कि मैं धर्म के भीतर जाकर वापस लौट आया हूं। मंदिर जाने से धर्म तक जाने का कोई भी संबंध नहीं है। मंदिर तक जाना एक बिलकुल भौतिक घटना है, शारीरिक घटना है। धर्म तक जाना एक आत्मिक घटना है। मंदिर तक जाना एक भौतिक यात्रा है, मंदिर तक जाना एक आध्यात्मिक यात्रा नहीं है। सच तो यह है कि जिनकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है, उन्हें सारी पृथ्वी मंदिर दिखाई पड़ने लगती है । फिर उन्हें मंदिर को खोजना बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह कहां है? नानक ठहरे थे मदीना में और सो गए थे रात मंदिर की तरफ पैर कर के । पुजारियों ने आकर कहा था कि हटा लो ये पैर अपने, तुम पागल हो या कि नास्तिक हो या कि अधार्मिक हो, तुम पवित्र मंदिर की तरफ पैर किए हुए हो। नानक ने कहा था मैं खुद बहुत चिंता में हूं कि अपने पैर कहां करूं, तुम मेरे पैर वहां कर दो जहां परमात्मा न हो, जहां उसका पवित्र मंदिर न हो। वे पुजारी ठगे हुए खड़े रहे गए। कोई रास्ता न था कि नानक के पैर कहां करें ? क्योंकि जहां भी था, अगर था तो परमात्मा था। जहां भी जीवन है वहां प्रभु का मंदिर है । तो जिन्हें धर्म की यात्रा का थोड़ा सा भी अनुभव हो जाता है उन्हें तो सारा जगत मंदिर दिखाई पड़ने लगता है। Page 144 of 197 http://www.oshoworld.com

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