Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 136
________________ भारत का भविष्य मार्कट्वेन ने कहा, क्या रखा है तुम्हारे व्याख्यान में, कुछ शब्दों के सिवाय, ओंठों को हिलाने और गले से आवाज करने के सिवाय वहां होगा क्या? उस मित्र ने कहा, आश्चर्य! तुम व्याख्यान का इतना ही अर्थ लेते हो? फिर भी तुम आज आओ मुझे सुनोगे तो शायद तुम्हारी धारणा बदल जाए। नहीं माना तो मार्कट्वेन सुनने गया। हजारों लोग सुनने आए थे। मार्कट्वेन सामने ही बैठ गया। उसके मित्र ने जो कुछ भी उसके जीवन में श्रेष्ठतम धारणाएं रही होंगी, जो भी उसके मन में काव्य रहा होगा, जो भी उसके जीवन में सौंदर्य के अनुभव रहे होंगे, सब उंडेल दिए उस दिन। लेकिन बार-बार उसने देखा मार्कट्वेन की तरफ, वे हजारों लोग मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे, लेकिन मार्कट्वेन ऐसे बैठा हुआ था कि जैसे कोई शिक्षक परीक्षार्थी के सामने बैठा रहता है। वह ऐसे देख रहा था जैसे कोई इंस्पेक्टर किसी चोर की खानातलाशी ले रहा हो। मार्कट्वेन, एक क्षण को भी उसके चेहरे पर ऐसा भाव नहीं आया कि कुछ बात कही गई है। मित्र तो घबड़ा गया। उतरा, लौटा, गाड़ी में बैठा तो हिम्मत न पड़ी पूछने की। आखिर में उसने पूछा घर पहुंच कर, आपको कैसा लगा? मार्कट्वेन ने कहा, लगने का क्या था एक घंटा मेरा खराब किया। तुम सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं बोलते थे! शब्द ही शब्द! शब्दों में क्या रखा है! और भी मैं तुम्हें बता दूं कि तुमने जो भी बोला, रात ही मैं एक किताब पढ़ रहा था उसमें एक-एक शब्द लिखा हुआ है जो भी तुमने बोला है। उस किताब में सब तुम्हारे शब्द लिखे हुए हैं। एक भी शब्द तुमने अपना नहीं बोला, कोई विचार नया नहीं था। उस मित्र ने कहा, हद करते हो। यह तो हो सकता है कि मैंने जो कहा उसका कोई विचार किसी किताब में लिखा हो, लेकिन मैंने जो बोला एक-एक शब्द लिखा हो! बिलकुल झूठ बोलते हो! मार्कटवेन ने कहा, यह हाथ रहा है, सौ-सौ रुपये की, सौ-सौ डालर की शर्त लग जाए। शर्त लग गई! मित्र ने सोचा कि मार्कट्वेन हार ही जाएगा। क्योंकि ऐसी किताब कहां खोजी जा सकती है जिसमें मेरे सारे शब्द हों। लेकिन दूसरे दिन मार्कट्वेन जीत गया और मित्र को सौ डालर उसे देने पड़े। उसने सुबह ही एक डिक्शनरी, एक शब्दकोश भेज दिया कि इसमें तुम्हारे सब शब्द लिखे हुए हैं। एक-एक शब्द तुम जो बोले हुए हो इसमें लिखा हुआ है। तुम कोई मौलिक और नई बात नहीं बोले हो। एक काव्य, एक सत्य, एक कही गई आनंद की बात, शब्दकोश के शब्दों में छोड़ी जा सकती है, और सब व्यर्थ हो गई, बेमानी हो गई। जीवन की निंदा हमने इस भांति की है कि जीवन में कुछ भी नहीं है। जो भी है उसे तोड़-तोड़ कर बताया और लगा कि जीवन में कुछ भी नहीं है। हिंदुस्तान को हिंदुस्तान की प्रतिभा को जीवन को प्रेम करना सीखना पड़ेगा; तो ही हम जीवन की संपदा, जीवन के विकास को उपलब्ध हो सकते हैं। जीवन की निंदा से कभी नहीं: जीवन के विरोध से कभी नहीं: जीवन के दुश्मन और शत्रु बन कर कभी नहीं; जीवन के प्रेमी बन कर, जीवन में रस लेकर, जीवन में आनंदित होकर, जीवन के लिए परमात्मा को धन्यवाद देकर ही हम जीवन को विकसित कर सकते हैं। अन्यथा हम जीवन को विकसित नहीं कर सकते। गांधीवाद तो नहीं था लेकिन इन तीन विचारधाराओं ने इस देश के प्राणों को संघातक चोट पहंचाई। और आज भी हमारा धर्मगुरु, हमारा विचारक, हमारा नेता उन्हीं बातों को किए चला जा रहा है। बिना जाने, बिना सोचे। Page 136 of 197 http://www.oshoworld.com

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