Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 130
________________ भारत का भविष्य अशांत आदमी, भीतर से अशांत आदमी जब जीवन के उपक्रम में लगता है, तो उपक्रम में विकास तो दिखाई पड़ता है लेकिन मूलतः विकास नहीं होता और भी खतरनाक स्थितियां पैदा होती हैं। जब अशांत आदमी, भीतर से अशांत आदमी जीवन का विकास करता है तो जीवन में वह जिन चीजों को विकसित करता है, वे विध्वंसात्मक होती हैं, डिस्ट्रक्टिव होती हैं, कभी सृजनात्मक नहीं होती। पश्चिम ने वैसी भूल कर ली है। पश्चिम लगा है अशांति और असंतोष में। भीतर है अशांति, बाहर है असंतोष। परिणाम? परिणाम यह हुआ कि वे उस जगह पहुंच गए हैं जहां जागतिक आत्मघात हो सकता है। वे वहां पहुंच गए हैं जहां हम सारी मनुष्यता को, सारे जीवन को नष्ट कर सकते हैं। जीवन का उनका सारा विकास ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे परम मृत्यु की तरफ ले जाने वाला विकास बन गया। एक उन्होंने भूल की है, हमने दूसरी भूल की है। हम भीतर भी शांत; बाहर भी शांत होने का इंतजाम कर लिए। इस शांति का एक मतलब हुआ कि यह पूरा मुल्क एक लंबा मरघट हो गया है, जहां एक मुर्दगी छाई हुई है, जहां न कोई खुशी है, जहां न कोई आनंद है, न कोई जीवन का नृत्य है, न कोई जीवन का रस है, हम सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब भगवान हमें पृथ्वी से उठा ले और आवागमन से छुटकारा हो जाए। नहीं; इन दोनों के बीच कोई सेतु बनाना जरूरी है। भीतर चाहिए शांति और बाहर चाहिए असंतोष। और यह हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। भीतर की शांति के सूत्र अलग हैं और बाहर के जीवन को सृजनात्मक रूप से विकसित करने के सूत्र अलग हैं। शांत होने का मतलब मर जाना नहीं है, शांत होने का मतलब पलायनवादी हो जाना नहीं है। शांत होने का मतलब है कि जो काम हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है। जो विकास हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है। जीवन को बदलने की जो चेष्टा हम अशांति से करते थे उसे शांति से करना है। और निश्चित ही शांति के माध्यम से किया गया विकास ज्यादा सुदृढ़, ज्यादा सच्चा, ज्यादा जीवन को ऊंचा ले जाने वाला होगा। लेकिन हम एक संतोष की थोपे हुए संतोष की धारणा लिए हुए बैठे हैं। मैं एक संन्यासी के पास था। संन्यासी के पास उनके दस-पच्चीस भक्त भी इकट्ठे थे। वे संन्यासी मुझे एक गीत सुनाने लगे, जो उन्होंने लिखा था। वह गीत, उसके शब्द बहुत सुंदर थे, उसकी रचना सुंदर थी, वे बड़े भाव से गीत गाने लगे। उनके भक्तों के सिर हिलने लगे। उन्होंने गीत में कहा था : किसी सम्राट को संबोधन किया था, कहा था कि सम्राट तुम अपने राज-सिंहासन पर हो, रहो, मुझे तुम्हारे राज-सिंहासन की कोई वासना नहीं, कोई लालसा नहीं; मैं तो अपनी इस धुन में ही मजे में हूं; मैं तुम्हारे राज-सिंहासन की कोई फिक्र भी नहीं करता, रहो तुम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर, मैं तो अपनी धुन में भी आनंदित हूं। फिर उन्होंने गीत गाकर मुझसे पूछा कि आपको गीत कैसा लगा? मैंने उनसे कहा कि मैं बहुत हैरान हूं! अगर आपको स्वर्ण-सिंहासन से कोई भी मतलब नहीं है तो यह स्वर्ण-सिंहासन और यह सम्राट आपको दिखाई क्यों पड़ते हैं? मैंने तो कभी किसी सम्राट को यह गीत गाते नहीं सुना है आज तक पूरी पृथ्वी पर, इतिहास में कोई उल्लेख नहीं कि किसी सम्राट ने किसी फकीर को यह संबोधन किया हो कि तू रह मजे में अपनी धुन में, मैं अपने स्वर्ण-सिंहासन में ही मजे में हूं, मुझे तेरी कोई फिक्र नहीं। ऐसा किसी सम्राट ने अब तक नहीं कहा। लेकिन फकीर को क्यों सम्राट और उसके राज-सिंहासन दिखाई पड़ते Page 130 of 197 http://www.oshoworld.com

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