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भारत का भविष्य
तक उसके ही अनुकुल, उसके ही आत्मा के अनुकूल विकास न हो, तब तक देश के लिए उससे कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता।
ओशो ने जो अपने विचार हमारे सामने रखे हैं. उन्हें हमें फिर सख्त...।
नवां प्रवचन भारत का भविष्य मेरे प्रिय आत्मन्! बीती चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं। कुछ मित्रों ने पूछा है कि भारत सैकड़ों वर्षों से दरिद्र है, तो इस दरिद्रता में, इस दरिद्रता में तो गांधीवाद का हाथ नहीं हो सकता है। वह क्यों दरिद्र है इतने वर्षों से?
गांधीवाद का हाथ तो नहीं है, लेकिन गांधीवाद जैसी ही विचारधाराएं इस देश को हजारों साल से पीडित किए हए हैं। उन विचारधाराओं का हाथ है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उन विचारधाराओं को हम क्या नाम देते हैं। दो विचारधाराओं पर ध्यान दिलाना जरूरी है। एक तो भारत में कोई तीन-चार हजार वर्षों से संतोष की, कंटेंटमेंट की जीवन धारणा को स्वीकार किया है। संतुष्ट रहना है, जितना है उसमें संतोष कर लेना है। जो भी है उसमें ही तृप्ति मान लेनी है। अगर हजारों वर्ष तक किसी देश की प्रतिभा को, मस्तिष्क को संतोष की ही बात समझाई जाए, तो विकास के सब द्वार बंद हो जाते हैं। संतोष आत्मघाती है। जरूर एक संतोष है जो आत्मज्ञान से उपलब्ध होता है। उस संतोष का इस तथाकथित संतोष से कोई संबंध नहीं है। एक संतोष है जो व्यक्ति स्वयं को जान कर या प्रभु के मंदिर में प्रवेश करके उपलब्ध करता है। वह संतोष बनाना नहीं पड़ता, समझना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, अपने पर थोपना नहीं पड़ता। वह परम उपलब्धि से पैदा हुई छाया है। लेकिन जिसे हम संतोष समझते हैं कि जीवन में जो कुछ है, दीनता है, दरिद्रता है, रोग है, बीमारी है, उसमें ही संतुष्ट रह जाना है, ऐसा संतोष आत्मघाती है, स्युसाइडल है। जीवन के विकास के लिए चाहिए एक तीव्र असंतोष। जीवन की सब दिशाओं में विकास के लिए असंतोष के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। और जो देश संतोष की बातों में अपने को भुला लेगा, संतोष की...हो जाएगा, उस देश की यही स्थिति हो सकती है जो हमारे देश की हुई। नहीं; जीवन के विकास में एक क्रिएटिव डिस्कंटेंट, एक सृजनात्मक असंतोष की जरूरत है। और यह मत सोचें कि जीवन के विकास के लिए जो सृजनात्मक असंतोष है वह भीतर अशांति बनता है। कभी भी नहीं। सच तो यह है कि जितने लोग अपने को जबरदस्ती संतोष में ढांप लेते हैं, संतोष के वस्त्र ओढ़ लेते हैं वे भीतर निरंतर जलते रहते हैं और असंतुष्ट, परेशान और अशांत रहते हैं। थोपा हुआ संतोष कभी भी सत्य नहीं हो सकता। ऊपर से आरोपित किए गए संतोष के भीतर असंतोष की आग जलती ही रहती है। असंतोष चाहिए
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