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भारत का भविष्य
हमने सब कलह का उपाय तोड़ दिया। अब ये दोनों लड़ रहे हैं। अब वह लड़ने की जो सुविधा थी कहीं और वह तो समाप्त हो गई। तो पति-पत्नी लड़ेंगे। अब कोई उपाय नहीं है। और वे आमने-सामने पड़ गए हैं। मनुष्य ने जो-जो आज तक किया है समाज की तरफ से, जिसमें उसने कोशिश की है संस्थाओं को बदलने की। समाज की बदलाहट का मतलब है संस्थाओं को बदलना। समाज को बदलने का मतलब है समूह की व्यवस्थाओं को बदलना। और यह आशा रखना कि जब संस्थाएं बदलेंगी, समूह की व्यवस्था बदलेगी, तो व्यक्ति निश्चित ही बदल जाएगा। यह आशा बिलकुल ही व्यर्थ गई। और अब मैं मानता हूं कि जो आदमी सच में क्रांतिकारी है, वह क्रांतिकारी नहीं हो सकता अब। क्योंकि क्रांति जितनी रूढ़िग्रस्त सिद्ध हुई है उतनी और कोई चीज सिद्ध नहीं हुई। तो अब भी क्रांति की बात करना मोस्ट अनरेवलूशनरी। पाप है। क्योंकि अगर जिनको दिखाई नहीं पड़ता कि पांच हजार साल के इतिहास में क्रांति सिवाय असफलता के कहीं नहीं ले जा सकी। और क्रांति कोई नई बात भी नहीं, क्योंकि सदा से हो रही है, उसमें कुछ नया भी नहीं आता। पुरानी से पुरानी परंपरा क्रांति की परंपरा है। फिर भी वे वही सोचे जाते हैं कि कैसे इसको बदल दें, कैसे उसको बदल दें। तो मेरी नजर तो नहीं है बहुत उस पर। मेरी दृष्टि तो सीधी है और वह यह है कि अगर कोई भी बदलाहट इस दुनिया में आई है कभी, या कभी आ सकेगी, तो वह व्यक्ति की बदलाहट है। लेकिन जिनको क्वांटिटी की फिक्र होती है बहुत, उनको ऐसा लगता है कि कब हो पाएगा व्यक्ति का, एक-एक व्यक्ति को बदलते रहेंगे तो कब हो पाएगा। इसकी फिक्र ही क्या है कि कब हो पाएगा? एक में भी हो जाता है तो ठीक है। और मजा यह है कि जिसमें जल्दी लगता है कि जल्दी सबमें हो जाए। एक में भी नहीं हो पाता। क्रांति व्यक्तिगत ही हो सकती है। समूह धोखा है। हां, व्यक्तियों में होती चली जाए और वह समूह में फलित हो जाए। क्योंकि आखिर व्यक्ति समूह बन जाते हैं। तो कोई परिणाम उसमें हो सकता है। नहीं तो उसमें कोई परिणाम नहीं होता। और चेतना के जो भी रूपांतरण हैं, क्योंकि चेतना का घर और आवास ही व्यक्ति में है। उसका कोई समूह, समूह आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। और जब हम एक व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं तो
अनिवार्य रूप से हम उसके आसपास की चेतना के तंतुओं को भी बदलते हैं। आसपास जहां-जहां वह जुड़ा है वहां भी बदलाहट होनी शुरू हो जाती है। मगर यह, यह निरंतर कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर, कभी कोई जीसस की ही बात कहता रहा है। लेकिन सदा हमने यह सोचा कि एक व्यक्ति को बदलने से, एक-एक को बदलने से कब होगी बदलाहट? और मजे की बात यह है कि बुद्ध को मरे ढाई हजार साल हो गए, और ढाई साल में अगर बुद्ध की बात मान कर चला जाता, तो शायद बदलाहट करोड़ों में हो गई होती। लेकिन हमने सोचा कि एक-एक को बदलने से कब होगी बदलाहट? तो ढाई हजार साल तो हो गए? और जिनको जिन्होंने कहा था कि बदलाहट जल्दी हो जाएगी समूह को बदलने से, उनकी सब बदलाहटें हो गइ। और कोई बदलाहट नहीं हुई। आदमी वहीं का वहीं खड़ा रह गया। तो मेरी तो कोई दृष्टि है नहीं बहुत उस तरफ। इतना ही है कि व्यक्तियों के समूह बढ़ते चले जाएं और उसका समूह का जो परिणाम हो जाए सहज, समूह को सीधा ध्यान में रख कर ही ध्यान में तो व्यक्ति को ही रखना है। फिर भी समूह में हो जाए, एज ए बाइ-प्रोडक्ट। वह स्वीकार है। न हो तो उसकी चिंता नहीं है। और अब मैं
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