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भारत का भविष्य
या बिरला ही शोषक हैं ऐसा क्यों? कालिदास और शेक्सपियर और आइंस्टीन और बुद्ध शोषक नहीं हैं। ये भी शोषक हैं। शोषक का अगर यही मतलब है कि किसी के पास कोई चीज ज्यादा हो जाती है और किसी के पास कम पड़ जाती है, तो इसका आज नहीं कल हमें निपटारा करना पड़ेगा। एक आदमी बुद्ध होकर बैठ जाए और दूसरा आदमी बुद्ध बना रहे यह कैसे चलेगा? यह नहीं बर्दाश्त किया जा सकता। बुद्ध कहेगा कि या तो मुझे बुद्ध बनाओ, जो कि कठिन है। तो दूसरा उपाय यह है कि बुद्ध को बुद्धू बना लो, जो कि आसान है, सुगम है। गरीब कहता है कि बिरला को या राकफेलर। मुझे भी बिरला और राकफेलर बना दो, जो कि कठिन है। सरल यह है कि राकफेलर और बिरला को बांट कर एक गरीब बना दो, जो कि आसान है, जो कि किया जा रहा है। सारा सोशलिज्म, सारा समाजवाद वही कर रहा है। पर इसकी अंतिम नियति क्या है? इन सारे तर्कों को अगर सामायिक संदर्भ में देखें तो बड़े ठीक मालूम पड़ते हैं। लेकिन लंबा फैला कर देखें तो पता चलता है कि ये तो उपद्रव में रोज उतारते चले जाते हैं। ये रोज उतारते चले जाते हैं। अभी मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के बाद मां-बाप को समझाया कि बच्चों को डांट-डपट नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उससे उनकी आत्मा को चोट पहंच रही। उनकी स्वतंत्रता को चोट पहंच रही। उनको स्वतंत्रता देनी है, सुविधा देनी है। और किसी तरह का उन पर प्रतिबंध न हो, इसे सिद्ध कर दिया। पचास साल में उन्होंने समझा दिया, मां-बाप समझ गए। पहले बच्चा डर कर घुसता था घर में, अब मां-बाप डर कर घर में घुसते हैं कि कहीं बच्चे के ऊपर कहीं प्रतिबंध तो नहीं हो रहा। और बच्चे मां-बाप पर प्रतिबंध कर रहे हैं। यह कभी मनोवैज्ञानिकों को खयाल में भी नहीं था कि जिस दिन मां-बाप प्रतिबंध नहीं करेंगे उस दिन बच्चे प्रतिबंध करेंगे। उनको खयाल यह था कि मां-बाप प्रतिबंध नहीं करेंगे, बच्चे स्वतंत्र होंगे। बस इतना ही खयाल था। इसका अंतिम कनक्लजन क्या है? इसका आखिरी कनक्लुजन यह है कि कंटोल तो कोई न कोई करने ही वाला है। बच्चे करेंगे। अब यह बड़ी मुश्किल बात है। यह बेहतर था कि मां-बाप करते थे। बजाए इसके कि बच्चे करें। क्योंकि कम से कम वे अनुभवी थे। कम से कम वे बच्चे भी रह चुके थे। लेकिन बच्चों को तो इसका कोई भी पता नहीं है कि बूढ़े होने का क्या मतलब होता है। और जब एक दफा बच्चों को कह दिया कि हम उन पर प्रतिबंध नहीं करेंगे, तो किस सीमा पर रुकिएगा? आज बच्चे कहते हैं कि हम स्कूल नहीं पढ़ना चाहते हैं। तो प्रतिबंध करना है कि नहीं करना है? उनकी स्वतंत्रता पर आघात तो कर ही रहे हैं आप। कौन बच्चा पढ़ना चाहता है? कौन बच्चा पढ़ना चाहता है? अगर सुविधा होगी तो कोई बच्चा पढ़ने को राजी नहीं। आज अमेरिका की हालत यह है कि अमेरिका को सारी की सारी बुद्धिमत्ता दूसरे मुल्कों से उधार लेनी पड़ रही है। दूसरे मुल्क चिंतित हैं यूरोप के, कहते हैं, ब्रेन ब्रेनिज हो रहा है। क्योंकि अमेरिका ज्यादा तनख्वाह देता है।
और यूरोप और सारी दुनिया का जो बुद्धिमान आदमी है वह अमेरिका चला जाता है नौकरी करने। और अमेरिका की मजबूरी है कि उसको सारी दुनिया से बुद्धिमान खोजना पड़ रहा है। उसके बच्चे तो यूनिवर्सिटी से इनकार कर रहे हैं। उसके बच्चे तो पढ़ना ही नहीं चाहते। वे तो हिप्पी हैं, बीटनिक हैं वे तो अपने नाच-कूद कर रहे हैं, मारिजुआना ले रहे हैं। वे पढ़ना-वढ़ना चाहते नहीं। अमेरिका आज सारी दुनिया से बुद्धिमान आदमी को
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