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भारत का भविष्य
अगर वे चाहते भी होंगे ज्यादा लोगों तक फैले; पर व्यक्तिशाही; ध्यान व्यक्ति पर ही हो। और इधर मुझे यह भी खयाल में आना शुरू हुआ कि जो लोग भी ज्यादा समूह में उत्सुक होते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि वे सिर्फ अपने से पलायन कर रहे होते हैं। समूह की चिंता लेकर बहुत आसानी से आदमी अपने से बच जाता है। लैंजा दिलवास्तो का मैं जीवन पढ़ रहा हूं। वे पश्चिम में गांधी जी के...हैं, अनुयायी हैं, यूरोप के गांधी हैं। वे जब उन्नीस सौ तीस में भारत आए, तो बहुत भले आदमी हैं, एकदम भले आदमी। तो पहले वे रमण महर्षि के आश्रम गए। और रमण महर्षि उनको बिलकुल भी नहीं जंचे। जो आदमी जंचने जैसा था, वह बिलकुल भी नहीं जंजा। बल्कि लैंजा दिलवास्तो ने जो बातें अपनी डायरी में लिखी हैं वे अशुभ हैं रमण के बाबत। लिखा उसने यह है कि यह कैसा अध्यात्म कि एक आदमी सुबह से सांझ तक चुपचाप बैठा हुआ है। इस ध्यान का क्या फायदा? इस अंतर्मुख का एक व्यक्तिवाद में क्या रस? समाज को बदलना है, दुनिया को बदलना है, यह जगह मेरे लिए नहीं। उसने डायरी में लिखा है: यह जगह मेरे लिए नहीं। मेरे लिए जगह तो वर्धा है! मुझे तो वर्धा जाना है!
और एक दिन रुका वह कि देख लें यह आदमी। तो एक दिन जो उसने डायरी में नोट किया है वह एकदम अभद्र है। मगर गांधीवादी के मन में वैसी अभद्रता होगी, अनिवार्य, रमण को देख कर। क्योंकि रमण को वहां लोग भगवान मानते हैं। तो वह लगता है कि अजीब बात है, भगवान भी सो रहे हैं, द गॉड इज़ ए स्लिपिंग। भगवान खाना खा रहे हैं। और तब तो हद हो गई जब रमण ने एक पान का पत्ता लेकर चबाया। तो उसने लिखा ः अब भगवान पान चबा रहे हैं, उसने डायरी में लिखा। और फिर तो और भी हद हो गई जब उन्होंने डकार ली खाने के बाद। उन्होंने कहा, द गॉड इज़ वैलफीड। यह जगह मेरे लिए नहीं। जगह मेरी वर्धा है! अब यह आदमी अपने को बदलने में जरा भी उत्सुक ही नहीं है। दुनिया को बदलने में उत्सुक है। रमण से इसका कोई तालमेल नहीं बैठता। गांधी से तालमेल बैठ जाएगा। मगर यह आदमी अपने को बदलने में उत्सुक क्यों नहीं है? अगर कोई भी बदलाहट की बुनियादी उत्सुकता है तो वह होनी चाहिए कि मैं अपने को कैसे बदल लूं? और मैंने कोई ठेका लिया सारी दुनिया का? और क्या मैं सारी दुनिया को बदल पाऊंगा? अपने को बदलना ही इतना मुश्किल है! और मैंने अगर कोशिश करके दुनिया को बदलने का कुछ रास्ता भी शुरू कर दिया—समझ लें, जो कि असंभव है। तो भी मैं तो बर्बाद हो जाऊंगा ही। और अगर हर आदमी दुनिया को बदलने में लगा हो, तो हर आदमी अपने को बर्बाद कर रहा है दुनिया को बदलने में। तो दुनिया तो कभी बदलने वाली नहीं, जो बदल सकता था वह बदलने से बच जाएगा। मेरी तो दृष्टि यह है कि उत्सुक हम हों अपनी बदलाहट में। और हमारी बदलाहट अगर संक्रामक हो जाए, वह
औरों को भी पकड़ ले, तो प्रभु कृपा। और न पकड़े तो इसमें बेचैनी का कोई कारण नहीं है। और पकड़े तो भी वह व्यक्ति को ही पकड़े। संस्थावादिता जो है, समूहवादिता जो है वही मैटीरियलिज्म है, वही पदार्थवाद है।
और व्यक्ति उन्मुखता जो है, और व्यक्ति को सर्वोपरि चैतन्य और जीवंत मानने की जो दृष्टि है वही अध्यात्म है। पर किसी को भी लगता हो कि मेरी बात ज्यादा लोगों के काम आ सकती है, तो वे कोशिश में लगें, बाकी मेरी उत्सकता नहीं। इसकी भी मेरी उत्सुकता आप में है। आपसे कुछ फैल जाएगा किसी में वह दूसरी बात है।
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