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भारत का भविष्य
इस मल्क को हिंदस्तान के ग्रामीण से कोई आशा नहीं है। हालांकि ग्रामीण ही पेट भर रहा है। इस मुल्क को हिंदुस्तान के अशिक्षित से कोई आशा बांधनी उचित नहीं है, क्योंकि वह बेचारा बहुत पुरानी दुनिया में जीया है, नई दुनिया की खोज उसे मुश्किल है। लेकिन हमारे बच्चे तो सारी नई दुनिया में जी रहे हैं। वे क्या नया कर रहे हैं? वे कुछ नया करते हैं थोड़ा-बहुत। वे कमीज का ढंग बदल लेते हैं, वे पतलून की थोड़ी सी चौड़ाई कम कर लेते हैं, वे जूते पर ज्यादा पालिश करने लगते हैं। इन सब बातों से जवान आदमी का कोई भी पता नहीं चलता। इन सब बातों से कोई पता नहीं चलता कि आप जिंदगी को नया करने की कोशिश में लगे हैं। न तो नये कपड़े बदल लेने से, न जूते की रौनक बदल लेने से, न थोड़ा ढंग से बोलना सीख लेने से कोई आदमी जवान होता
जवानी का एक लक्षण है कि जहां पुरानी पीढ़ी ने छोड़ा था दुनिया को, हम उसे आगे ले जाएं। जहां पुरानी समस्याएं थीं वे वहीं न रह जाएं, हम उन्हें हल करें। लेकिन हम समस्याओं को हल करने में उत्सुक नहीं हैं। पूरे मुल्क का जवान यह कहता है, हमारी समस्याएं हल करो। कौन हल करे? कौन जिम्मेवार है? सारे हिंदुस्तान के लड़के यह कहते हैं हमारी समस्याएं हल करो। जैसे कि पुरानी पीढ़ी का कोई जिम्मा है सारी समस्याएं हल करने का। पुरानी पीढ़ी आपकी समस्याएं हल नहीं करेगी। नहीं कर सकती है। अगर बोले और आश्वासन दे तो झूठे आश्वासन है। आपकी समस्याएं आपको हल करनी पड़ेंगी। जिम्मेवारी आपकी है। यह शिकायत किसी और से नहीं हो सकती। अगर नहीं हल कर पाएंगे तो हम भूखे मरेंगे, परेशान होंगे, दुखी होंगे। और अगर हल करेंगे तो हम सुखी हो सकेंगे, हम मुल्क को समृद्ध कर सकेंगे, संपन्न कर सकेंगे, शक्ति दे सकेंगे। सारी दुनिया संपन्न होती जा रही है, हम क्यों गरीब होते चले जा रहे हैं? आज अमेरिका, या स्वीडन, या स्विटजरलैंड, या नार्वे में सवाल यह है कि उनके पास इतनी संपत्ति है उसका वे क्या करें? और हमारे सामने सवाल यह है कि हमारे पास इतने आदमी हैं इनके लिए हम कहां से संपत्ति दें? आखिर उनके पास भी हमारे जैसे ही मन हैं, बुद्धियां हैं। हमारे पास कोई कम बुद्धि नहीं है किसी से। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है हमारी बुद्धि लड़ने-झगड़ने में व्यय हो जाती है। हमारी सारी बुद्धि लड़ने-झगड़ने में व्यय हो जाती है। हम इतने लोग यहां बैठे हुए हैं, अगर हम सब आपस में लड़ने लगें, तो इस हाल की सारी ताकत नष्ट हो जाएगी। लेकिन अगर हम सारे संयुक्त होकर किसी सृजन में लग जाएं तो हम शायद कुछ बना पाएंगे।
और जिन चीजों के लिए हम लड़ रहे थे, वे सहयोग से निर्मित हो सकती हैं। और जिन चीजों के लिए हम लड़ रहे थे अगर लड़ते ही रहे तो वे कभी भी निर्मित न होंगी और जो निर्मित है वह भी टूट जाएगा। इस समय हिंदुस्तान को सहयोग की एक फिलासफी चाहिए, एक कोआपरेशन की फिलासफी चाहिए। लेकिन हिंदुस्तान में जितनी फिलासफीज आज प्रचलित हैं—चाहे कम्युनिज्म, चाहे सोशलिज्म और चाहे जनसंघ और चाहे कांग्रेस और चाहे कोई भी वे सभी कांफ्लिक्ट की फिलासफी हैं। वे सब यह सिखा रही हैं कि लड़ो। वे सब यह सिखा रही हैं कि दूसरा जिम्मेवार है। हिंदुस्तान में आज कोई भी इतनी कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि तुम जिम्मेदार हो, दुसरा जिम्मेदार नहीं है। और कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटाता कि लड़ने से कुछ हल न होगा।
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