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भारत का भविष्य
...आर्थिक सोच-विचार करने वाले लोग करते थे। अब आध्यात्मिक लोगों ने भी इनकी आलोचना करनी शुरू कर दी है। शायद मोरार जी भाई को पता नहीं कि गांधी न तो आर्थिक व्यक्ति थे और न राजनैतिक। गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे। और इसलिए गांधी को समझने में न तो आर्थिक समझ के लोग उपयोगी हो सकते हैं
और न राजनैतिक बुद्धि के लोग उपयोगी हो सकते हैं। गांधी को समझने में केवल वे ही लोग समर्थ हो सकते हैं जिनकी कोई आध्यात्मिक दृष्टि है। और जब तक गांधी पर आध्यात्मिक दृष्टि के लोग विचार नहीं करेंगे तब तक गांधी के संबंध में सत्य का उदघाटन असंभव है। गांधी के साथ अन्याय यही हो गया कि गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे और दुर्भाग्य से सारे जीवन राजनीतिज्ञों से घिरे रहे। गांधी के लिए राजनीति आफत-धर्म में थी। गांधी का धर्म तो नीति थी, राजनीति मजबूरी थी। लेकिन गांधी के आसपास जो लोग इकट्ठे हुए थे, उनके लिए, उनके लिए राजनीति मूल थी, नीति आफत-धर्म थी। और यही फासला गांधी और गांधीवादियों के बीच हिंदुस्तान के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ है। जैसे ही सत्ता हिंदुस्तान के हाथ में आई, राजनीति तो गांधी को मजबूरी थी, सत्ता हाथ में आते ही वे हट गए। और उनके साथियों और सहयोगियों और अनुयायियों के हाथ में सत्ता पहुंच गई, उनके लिए नीति आफत-धर्म थी, सत्ता हाथ में आते ही उनकी नीति छुट गई। गांधी की राजनीति छुटी, उनकी नीति छटी। जिसका जो सार भाग था वह शेष रह गया और जो असार था वह छूट गया। गांधी के लिए राजनीति असार थी वह छूट गई और उनके अनुयायियों के लिए नीति और धर्म असार था वह छूट गया। गांधी ने शायद सोचा होगा कि उनके पीछे जो लोग इकट्ठे हैं, वे धर्म बुद्धि के, वे विचारशील, वे नैतिक और सदाचारी सिद्ध होंगे। गांधी वहां चूक कर गए, गांधी वहां ठीक नहीं समझ पाए, गांधी से भूल हो गई। उस भूल के लिए हम अभी भी पछता रहे हैं, और पता नहीं हमें कितने दिन पछताना होगा। गांधी यह बात भूल गए कि जो लोग सत्ता उपलब्ध होने के पहले उनके अनुयायी थे, सत्ता उपलब्ध होते ही गांधी से उनका कोई संबंध नहीं रह गया है। गांधी की उपयोगिता उन्हें इतनी थी कि सत्ता गांधी के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती थी। सत्ता उपलब्ध होते ही गांधी का कोई प्रयोजन नहीं रह गया था। गांधी को भी आखिर-आखिर में समझ में आने लगा था और उन्होंने कहा भी कि मैं अब एक खोटा सिक्का हो गया हूं अब मेरी कोई सुनता नहीं। काश उन्हें यह पहले ही खयाल में आ जाता कि जो उनके पीछे लोग इकट्ठे हैं, सत्ता मिलते ही कोई भी उनकी सुनेगा नहीं। गांधी अगर जीते तो मुझे लगता है कि गांधी को अपने बुढ़ापे में एक दूसरी लड़ाई शुरू करनी होती अपने ही शिष्यों के खिलाफ। गांधी इतने हिम्मत के आदमी थे कि उस बुढ़ापे में भी वे दूसरी लड़ाई जरूर शुरू करते। लेकिन शिष्यों का सौभाग्य कि शिष्यों की दिखता है भीतरी प्रार्थना गोडसे ने सुन ली और गांधी को समाप्त कर दिया। शिष्यों का सौभाग्य समझना चाहिए कि गांधी बीच से हट गए, अन्यथा इस बात की करीब-करीब गारंटी कही जा सकती है कि एक लडाई गांधी को अंग्रेजों से लड़नी पड़ी थी, उससे भी खतरनाक और बड़ी लडाई गांधी को कांग्रेस से लड़नी पड़ती। लेकिन इतिहास बड़ी अजीब और अदभुत घटना है। जिनसे उन्हें लड़ना पड़ता वे ही उनके हकदार और मालिक और कोई रक्षक हो गए हैं। वे ही अब गांधी को बचाने में लगे हुए हैं। गांधी से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, गांधी
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