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भारत का भविष्य
झुठला रहा है। हम ठीक उलटी तरकीबों से अपने को झुठलाने की कोशिश करते हैं। दिखाई पड़ता है कि अनैतिक है, दिखाई पड़ता है पाप से भरे हैं, लेकिन भीतर कहते हैं आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। आत्मा न कोई पाप करती, न कोई बुरा करती, आत्मा ने कभी कोई विकार किया ही नहीं। इसलिए जो साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं आत्मा ब्रह्म है, परम पवित्र है, उनके आसपास सब तरह के पापी इकट्ठे हो जाते हैं। वे कहते हैं, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आत्मा बिलकुल शुद्ध है। क्योंकि वे भी यह मानना चाहते हैं कि आत्मा बिलकुल शुद्ध होना चाहिए। क्योंकि उनकी अशुद्धियों का फिर क्या होगा ?
एक दफे जब साधु समझाता है सब संसार माया है। तब चोर समझता है कि चोरी भी माया है । कोई हर्जा नहीं है। माया में क्या हर्जा है ? सपने में चोरी करने में और सपने में साधु होने में कोई फर्क हो सकता है। जिंदगी सब सपना है। इसलिए हम चोर होने की सुविधा पा जाते हैं। जिंदगी के सपने होने से, जिंदगी के माया होने से। हमने अजीब गोरखधंधा पैदा किया हुआ है। हम अपने चारों तरफ एक ऐसा जाल बुन लिए हैं, जो हमारे व्यक्तित्व को निखरने नहीं देता, ईमानदार नहीं होने देता, आनेस्ट नहीं होने देता। हमने सामने के सब दरवाजे बंद कर दिए हैं। और सब तरफ से हमें पीछे के दरवाजे खोलने पड़े हैं।
अभी डाइनवी ने पश्चिम में एक वक्तव्य दिया और उसने कहा कि पश्चिम की जो सभ्यता है वह सिनसेट है, सिनसुअल है, पश्चिम की सभ्यता जो है वह ऐंद्रिक है । तो हिंदुस्तान भर के साधु-संन्यासियों का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। एक बड़े संन्यासी मुझे मिल रहे थे, उन्होंने कहा, आपने सुना, डाइनवी कहता है कि पश्चिम की सभ्यता ऐंद्रिक है। तो मैंने कहा कि वह सुन कर आप बहुत खुश न हों, ऐंद्रिक होना फिर भी एक सच्चाई है। अगर पश्चिम की सभ्यता सिनसेट है तो हमारी सभ्यता हिपोक्रेट है। वह उससे भी बदतर है। अगर पश्चिम की सभ्यता ऐंद्रिक है तो हमारी सभ्यता पाखंडी है। और पाखंडी होना ऐंद्रिक होने से बुरा है। क्योंकि इंद्रियां तो परमात्मा ने हमें दी हैं, पाखंड हमारी ईजाद है।
पश्चिम की सभ्यता एक तरह की सिनसिअरिटी को उपलब्ध हो रही है, एक तरह की ईमानदारी को । चीजें जैसी हैं, उनको वैसा देखने की एक वृत्ति पैदा हो रही है। और चीजें जैसी हैं, उनको वैसा देख कर बदला जा सकता है। लेकिन चीजें जैसी नहीं हैं, वैसी कल्पना कर लेने से बदलाहट बहुत मुश्किल हो जाती है। और एक अजीब स्थिति पैदा होती है जो पीछे के दरवाजे वाली है।
मैंने सुना है कि एक नगर में एक नाटक चल रहा था। नाटक की बड़ी प्रशंसा थी। उस गांव का जो बड़ा पादरी था उसे भी प्रशंसा सुनाई पड़ी। शेक्सपियर का नाटक है। बड़ी प्रशंसा है। लेकिन पादरी देखने कैसे जाए? उसके मित्रों ने भी कहा कि बहुत सुंदर है । पादरी ने कहा, नरक जाओगे। जितना लोगों ने कहा, बहुत अच्छा है, उतना पादरी ने कहा कि नरक में भटकोगे। नाटक में मत पड़ो, नाटक में कुछ भी नहीं है।
लेकिन रात उसको भी नींद न आती, उसे भी लगता कि पता नहीं नाटक में क्या हो रहा है? और लोगों को कहता है, नरक जाओगे। तब भी लोग नहीं डरते और नाटक जाते हैं और नरक की फिक्र नहीं करते । जरूर नाटक में कुछ होगा जो नरक के भय से भी ज्यादा आनंदपूर्ण मालूम पड़ता होगा, मन में भरता गया । आखिर उसने एक दिन मैनेजर को एक चिट्ठी लिखी, आखिरी दिन था नाटक का, उसने चिट्ठी लिखी कि मैं भी नाटक
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