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उपकृत हूँ, जिन्होंने अपने अमूल्य सुझावों द्वारा मेरे मार्ग को सरलीकृत किया तथा वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन की प्रेरणा दी। प्रोफेसर सागरमलजी जैन के प्रति भी विशेष कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिन्होंने न केवल इस कृति के प्रकाशन की प्रेरणा दी अपितु इसकी अनुमादेना एवं अनुशंसा लिखकर इसकी गरिमा को बढ़ाया है।
इस अवसर पर मैं बैंगलोर निवासी श्री तेजराजजी बांठिया के प्रति विशेष रूप से धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ, जिन्होंने मेरे अग्रज भगवान सिंह सामर की प्रेरणा से इस कृति के प्रकाशन हेतु अनुदान राशि प्रदान कर मुझे अनुगृहीत किया।
__ भगवतीसूत्र जैसे गुरुत्तर आगम ग्रंथ का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में परिशीलन प्रस्तुत करने में जहाँ एक ओर गुरुजन की असीम कृपा रही वहीं परिवारजन एवं मित्रजनों का भी पूर्ण सहयोग रहा। यह कार्य निर्बाध रूप से पूरा हो सका इसके लिए मैं हृदय से अपनी सास माँ ज्ञान कंवर डागा तथा ससुरजी नवरतनमल जी डागा के प्रति उपकृत हूँ, जिन्होंने घर के अन्य उत्तरदायित्वों से मुझे मुक्त रखकर सदैव अध्ययन के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। मेरे जीवनसाथी डॉ० सी. एस. डागा ने मेरे इस कार्य के संवर्द्धन में सार्थक योगदान दिया अतः उनके प्रति मैं श्रद्धा से नतमस्तक हूँ। अपने पिता बिजय सिंह जी सामर तथा माता केवल कुंवर सामर के उपकार की मैं सदा ऋणी रहंगी। उन्होंने बचपन से ही जैन धर्म के जो संस्कार मुझे प्रदान किये उन्हीं के परिणामस्वरूप मैं इस दिशा में आगे बढ़ सकी हूँ।
इस कृति को प्रस्तुत करने में जिन प्राचीन व नवीन कृतियों का उपयोग किया गया उन सभी के लेखकों व सम्पादकों को मैं हृदय से धन्यवाद देती हूँ। इस कार्य में प्राकृत भारती अकादमी के पुस्तकालय का सर्वाधिक प्रयोग किया गया। पुस्तकालय प्रभारी रीना जैन, विजय जी एवं शबनम के सहयोग को मैं विस्मृत नहीं कर सकती हूँ। इसके अतिरिक्त राजस्थान विश्वविद्यालय, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं तथा सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के पुस्तकालयों के प्रबंधकों की भी मैं आभारी हूँ, जिन्होंने यथा समय आवश्यक पुस्तकों के उपयोग में मुझे सहयोग प्रदान किया। इस कृति के टंकणकर्ता विमल जी एवं सागर जी को मैं धन्यवाद देती हूँ जिनके सहयोग से मेरा शोध प्रबंध इस रूप में प्रस्तुत हो सका है।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन