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४८) इस प्रकार से ऊपर वर्णित ऐसे शुभ, सौम्य, देखते ही स्नेह उपजाने वाले सुन्दर स्वरुप वाले स्वप्नों को देखकर, कमल 卐 की पंखुड़ियाँ जैसे नेत्रवाली और खुशी के कारण जिसकी रोमराजि खडी हो गई है, वैसी त्रिशला माता बिछौने में जाग्रत हो
गये।
जिस रात में बड़े यशस्वी अरिहंत-तीर्थकर माता की कुक्षी में गर्भरूप आते है । उसी रात में सभी तीर्थकरों की माताएँ ऐसे चौदह महास्वपनों को देखती है।
४९) उसके बाद वह त्रिशला क्षत्रियाणी ऐसे स्वरूपवाले प्रशस्त ऐसे चौदह महास्वपनों को देखकर जागने पर विस्मित - बनी हुई, संतोष पाई हुई, यावत् हर्ष के वश से उल्लसित हृदयवाली, मेघ की धारा से सिंचित कदंब के पुष्प की भांति
जिसकी रोमराजी विकसित हो गई है ऐसी, स्वपनों का स्मरण करने लगी। स्वप्नो का स्मरण करके शय्या से उठती 卐है। उठकर पादपीठ से नीचे उतरती है। उतरकर मन की उतावल से रहित, शरीर की चपलता से रहित एवं बीच में
किसी जगह विलंब से रहित ऐसी, राजहंस सश गति के द्वारा जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय की शय्या है,जहां सिद्धार्थ क्षत्रिय है वहां आती है। आकर के सिद्धार्थ क्षत्रिय को इस प्रकार के विशिष्ट गणोंवाली याने वचनों से जगाती है। वह वाणी
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