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यदि वहाँ पर नजदिक में कहीं पर एक या अनेक साधु रहे हुए हो तो उन्हें इस प्रकार कहना चाहिये - हे आर्य ! जब तक मैं गृहस्थ के घर जाऊं आऊं यावत् कायोत्सर्ग करूं अथवा वीरासन कर एकद जगह रहूँ तब तक इस उपधि को आप संभाल रखना। यदि वह वस्त्रों को संभाल रखना स्वीकार करें तो उसे गृहस्थ के घर गोचरी के निमित्त जाना, आहार करना, जिन मन्दिर जाना, शरीर चिन्ता दूर करने जाना, स्वाध्याय या कायोत्सर्ग करना एवं वीरासन कर एक स्थान पर बैठना कल्पता है। यदि वह अस्वीकार करें तो नहीं कल्पता। __(२८१) चातुर्मास रहे हुए साधु-साध्वियों को शय्या और आसन ग्रहण न किया हो रहना नहीं कल्पता। ऐसा होकर रहना यह आदान हैं दोष ग्रहण का कारण है। जो साधु-साध्वी शय्या और आसन अभिग्रहण नहीं करते ।शय्या या आसन जमीन से ऊंचे नहीं रखते तथा स्थिर नहीं रखते, बिना कारण (शय्या या आसन को) बांधा करते है। नाप बिना का आसन रक्खते है, आसानादि को धूप में नहीं रखते, पांच समिति में सावधान नहीं रहते, बारबार प्रतिलेखना नहीं करते और प्रमार्जन करने में ठीक ध्यान नहीं रखते । उन्हें उस प्रकार से संयम की आराधना करना कठिन हो जाता है। यह आदान नहीं । जो साधु-साध्वी शय्या और आसन को ग्रहण करते है। उनको ऊंचे और स्थिर रखते है, उनको
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