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९२) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी ने स्नान किया, बलिकर्म याने ईष्ट देव का पूजन किया, सकल विघ्नों के विनाश हेतु तिलकादि कौतुक और दही, धौ, अक्षतादि मंगलरुप प्रायश्चित किया तथा सर्व अलंकारो से अलंकृत & होकर, उस गर्भ का नीचे बताये हए आहारादि से पोषण करती है। अति ठंडे नहीं, अतिगर्म भी नहीं, अति चटपटे
नहीं, अति कट नहीं, अति कषायले नही, अति खट्टे भी नहीं, अति मीठे नहीं, अति स्निग्ध नहीं, अति रुक्ष भी नहीं,
अति हरा नहीं, अति शुष्क नहीं इस प्रकार के आहारादि द्वारा तथा उचित वस्त्र धारण करती है। गंध और मालाओं Q का त्याग किया। ऋतु के ऋतु अनुकुल सुखकारी भोजन करने लगी। वह रोग, शोक, मोह, भय, संताप को
छोडकर रहने लगी। उस गर्भ के लिए जो हितकारी हो उसका भी परिमितता से पथ्यपूर्वक गर्भ को पोषण हो इस प्रकार से प्रयोग करने लगी। उचित स्थान पर बैठकर और उचित समय जानकर गर्भ को पोषण मिले ऐसा आहार लेती तथा वह दोष रहित कोमल शय्या व आसनों से एकान्त में सखपूर्वक तथा मन को अनकल आवे ऐसी विहा भूमि में रहने लगी। इसे प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए उन्हें उचित रीति से पूरे करने में आये। इन दोहदों का पूरा ध्यान
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