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५५) उसके बाद उस त्रिशला क्षत्रियाणी सिद्धार्थ राजा से सुन, समझकर अत्यधिक खुश होती है, यावत् विकसित हृदयवाली होकर, दोनों हाथ जोडकर, दश नाखुन मिलाकर, मस्तक पर आवर्त कर, मस्तक पर अंजलि जोड़कर इस
प्रकार बोली। ★ ५६) “ हे स्वामी! यह इसी प्रकार है। हे स्वामी! आपने जो स्वप्नों का फल कहा है वह उसी प्रकार सत्य है। हे र स्वामी! आपका कथन निः संदेह है। हे स्वामी! यह ईप्सित है याने फल प्राप्ति हेतु इच्छित है। हे स्वामी! यह प्रतीष्ट है याने आपके मुख से निकलते ही मैने ग्रहण किया है। हे स्वामी! यह ईप्सित और प्रतीष्ट है। जिस प्रकार का आप अर्थ बताते है वह अर्थ सत्य है । ऐसा कहकर स्वप्नों को अंगीकार करती है। अंगीकार करके अपने स्थान पर जाने हेतु वह सिद्धार्थ राजा की अनुमति पाकर, विविध प्रकार के मणि, सुवर्ण व रत्नों की रचना के कारण आश्चर्यकारी
ऐसे सिंहासन से उठती है। उठकर त्वरा (उतावल) रहित, शरीर की चपलता रहित, स्खलना रहित एवं बिचमें किसी * भी स्थान पर विलंब रहित ऐसी राजहंस सद्दश गति के द्वारा जहां अपनी शय्या हे, वहां आती है। आकर इस प्रकार बोली कि-------
Forces Paaralan
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