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२४४.
२४५.
तं दापति जिनिंदो एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो धम्मवरचक्कवट्टी, अपच्छिमो वीरनामो त्ति ।।
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आदिगरु१२ दसाराणं, तिविट्टुनामेण३ पोयणाहिवई। पियमित्तचक्कवडी, मूयाइ विदेहवासम्मि ।
भगवान् ने चक्रवर्ती भरत के पूछने पर मरीचि की ओर संकेत करते हुए कहा- यह अन्तिम धर्मचक्रवर्ती होगा। इसका नाम वीर होगा और यह पोतना नामक नगरी का अधिपति त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव होगा। महाविदेह में मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा ।
२४८.
२४६. तं वयणं सोऊणं, राया अंचियतणूरुहसरीरो" । अभिवंदिऊण पियरं, मरीइमभिवंदओ" जाति" ।।
भगवान् के वचनों को सुनकर चक्रवर्ती भरत रोमांचित हुआ। वह भगवान् की अभिवन्दना कर मरीचि को वन्दना करने चला ।
२४७.
२४९.
लाभा हु ते सुलखा, जं सि तुमं धम्मचक्कवद्वीणं । होहिसि दसचउदसमो, अपच्छिमो वीरनामो त्ति ३२ ।। २४८/१. आदिगरु वसाराणं, तिविडुनामेण पोयणहिवई । पियमित्तचक्कवडी, 'मूवाइ विदेहवासम्मि" ॥
सो 'विणण उवगतो काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो । वंदति अभित्थुणतो, इमाहि महुराहि वम्मूहिं ॥
Shri Ashtapad Maha Tirth
'णावि य पारिव्वज्जं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थगरो, अपच्छिमो तेण वंदामि ।।
भरत विनयपूर्वक मरीचि के निकट आया और तीन बार प्रदक्षिणा कर वन्दना करते हुए इन मधुर वचनों से उसकी अभिस्तवना करने लगा - 'तुमने निश्चित ही बहुत लाभ अर्जित किया है। जिसके फलस्वरूप तुम वीर नाम वाले चौबीसवें अन्तिम धर्मचक्रवर्ती - तीर्थङ्कर बनोगे । मैं तुम्हारे इस जन्म के पारिव्राज्य को वंदना नहीं करता। तुम अन्तिम तीर्थङ्कर बनोगे इसलिए वन्दना करता हूँ ।'
२२. गरो (चू)।
२१. स्वो ३०५/१७६८) ।
२४. स्वो ३०६/१७७०, द्र टिप्पण (२४८ / १) |
२३. तिविट्ठ (ब, हा, दी ) । २५. इंचिय (अ) | बपा, हाटीपा, मटीपा) । ३०. स्वो ३०८/१७७२ ।
२६. आपुच्छितूण (स्वो) ।
२७. मभिवंदिउं (रा, लापा, २९. एणमुव (चू) ।
२८. स्वो ३०७ / १७७१ । ३१. हुकारो निपातः स चैवकारार्थः (मवृ) । ३२. स्वो ३०९/१७७३ ।
३३. मूअविदेहायवासम्मि (स्वो ३१० / १७७४), इस गाथा का पुनरावर्तन हुआ है (द्र. गा. २४५), स प्रति के अतिरिक्त प्रायः
सभी प्रतियों में इसका प्रथम चरण ही मिलता है। हा, म, दी में इसे पुनः नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है, मात्र गाथा का संकेत दिया है। दोनों भाष्यों में यह पुनः निगा के क्रम में है (स्वो ३०६/१७७०, ३१०/१७७४ को ३०६ / १७८३, ३१० / १७८७) ।
३४. ण वि ते (स्वो), णावि अ ते (म) । ३५. स्वो ३११/१७७५ |
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Aavashyak Niryukti