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Shri Ashtapad Maha Tirth
विषय को देखकर यह दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि जो अन्यत्र ग्रन्थों में प्रतिपादित है वह इसमें प्रतिपादित है और जो इसमें प्रतिपादित नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी प्रतिपादित नहीं है।
* कथानायक :
महापुराण के कथानायक त्रिषष्टिशलाकापुरुष हैं। २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण-ये त्रेसठ 'शलाकापुरुष' कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन हो पाया है। अन्य पुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य प्रणीत उत्तरपुराण में हुआ है। आचार्य जिनसेन स्वामी ने जिस रीति से प्रथम तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों तथा काव्यों से महान् होता। श्री जिनसेनाचार्य के देहावसान के बाद गुणभद्राचार्य ने अवशिष्ट भाग को अत्यन्त संक्षिप्त रीति से पूर्ण किया है परन्तु संक्षिप्त रीति से लिखने पर भी उन्होंने सारपूर्ण समस्त बातों का समुल्लेख कर दिया है। वह एक श्लाघनीय समय था कि जब शिष्य अपने गुरुदेव के द्वारा प्रारब्ध कार्य को पूर्ण करने की शक्ति रखते थे।
भगवान् ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में आद्य तीर्थंकर थे। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हो रही थी, तब उस सन्धिकाल में अयोध्या के अन्तिम मनु-कुलकर श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ था । आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारक थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद बिना बोये धान से लोगों की आजीविका होती थी; परन्तु कालक्रम से जब वह धान भी नष्ट हो गया तब लोग भूख-प्यास से अत्यन्त क्षुभित हो उठे और सब नाभिराज के पास पहुँचकर 'त्राहि-त्राहि करने लगे। नाभिराज शरणागत प्रजा को भगवान् ऋषभनाथ के पास ले गये। लोगों ने अपनी करुण-कथा उनके समक्ष प्रकट की। प्रजाजनों की विह्वल दशा देखकर भगवान् की अन्तरात्मा द्रवीभूत हो उठी। उन्होंने उसी समय अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की व्यवस्था का स्मरण कर इस भरतक्षेत्र में वही व्यवस्था चालू करने का निश्चय किया। उन्होंने असि (सैनिक कार्य), मसि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या (संगीत-नृत्यगान आदि), शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य (व्यापार) - इन छह कार्यों का उपदेश दिया तथा इन्द्र के सहयोग से देश, नगर, ग्राम आदि की रचना करवायी। भगवान् के द्वारा प्रदर्शित छह कार्यों से लोगों की आजीविका चलने लगी। कर्मभूमि प्रारम्भ हो गयी। उस समय की सारी व्यवस्था भगवान् ऋषभदेव ने अपने बुद्धिबल से की थी, इसलिए वह आदि-पुरुष, ब्रह्मा, विधाता आदि संज्ञाओं से व्यवहृत हुए।
नाभिराज की प्रेरणा से उन्होंने कच्छ, महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। नाभिराज के महान् आग्रह से राज्य का भार स्वीकृत किया। आपके राज्य से प्रजा अत्यन्त सन्तुष्ट हुई। कालक्रम से यशस्वती की कूख से भरत आदि १०० पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री हुई और सुनन्दा की कूख से बाहुबली पुत्र तथा सुन्दरी नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रपुत्रियों को अनेक जनकल्याणकारी विद्याएँ पढ़ायी थीं जिनके द्वारा समस्त प्रजा में पठन-पाठन की व्यवस्था का प्रारम्भ हुआ था।
नीलांजना का नृत्य-काल में अचानक विलीन हो जाना भगवान् के वैराग्य का कारण बन गया। उन्होंने बड़े पुत्र भरत को राज्य तथा अन्य पुत्रों को यथायोग्य स्वामित्व देकर प्रव्रज्या धारण कर ली। चार हजार अन्य राजा भी उनके साथ प्रव्रजित हुए थे परन्तु वे क्षुधा, तृषा आदि की बाधा न सह सकने के कारण कुछ ही दिनों में भ्रष्ट हो गये। भगवान् ने प्रथमयोग छह माह का लिया था। छह माह समाप्त होने के बाद वे आहार के लिए निकले, परन्तु उस समय लोग, मुनियों को आहार किस प्रकार दिया जाता है, यह नहीं जानते थे। अतः
Adipuran
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