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Shri Ashtapad Maha Tirth
ये अवसर्पिणी के छह भेद हैं। इसके उल्टे अर्थात् (१) दुष्मा-दुष्मा, (२) दुष्मा, (३) दुष्मा-सुष्मा, (४) सुष्मा-दुष्मा (५) सुष्मा और सुष्मा-सुष्मा ये छह उत्सर्पिणी के भेद हैं। प्रारम्भ के तीन कालों का प्रमाण क्रम से चार कोडाकोडी सागर, तीन कोडाकोडी सागर है। चौथे का काल प्रमाण बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोडाकोडी सागरोपम है। पाँचवें और छठे का काल २१-२१ हज़ार वर्ष प्रमाण है। जिस प्रकार दश कोडाकोड़ी सागर का अवसर्पिणी काल है उसी प्रकार दश कोडा कोडी सागरोपम उत्सर्पिणी काल है। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी दोनों मिलाकर कालचक्र कहलाता है। इन दोनों काल के समय भरतऐरावत क्षेत्र में पदार्थों की स्थिति हानि एवं वृद्धि के लिए होती है। इन दो क्षेत्र के सिवाय अन्य क्षेत्रों में पदार्थों की स्थिति हानिवृद्धि से रहित है।
सागरोपम का कालमान समझने के लिए हमें योजन एवं पल्य का माप जानना आवश्यक है। जो इस प्रकार हैआठ अवसंज्ञा
= एक संज्ञा-संज्ञा आठ संज्ञा-संज्ञा
= एक त्रुटीरेणु आठ त्रुटीरेणु
एक त्रसरेणु आठ त्रसरेणु
एक रथरेणु आठ रथरेणु
= एक उत्तम भोगभूमिज मनुष्य के बाल का अग्रभाग। आठ बालाग्र
मध्यम भोगभूमिज मनुष्य का बालाग्र आठ मध्यम भोगभूमिज बालाग्र = जधन्य भोगभूमिज बालाग्र आठ ज. भो. बालाग्र
= कर्मभूमि भोगभूमिज बालाग्र आठ बालाग्र
= १ लीख आठ लीख
= १ जुआँ आठ जुआँ
= १ जव ८ जव
= १ उत्सेधांगुल (शरीरमाप के लिए) उत्सेधांगुल को पाँच सौ का गुणा करने पर एक प्रमाणांगुल होता है । यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती का अंगुल है।
अपने अपने समय में मनुष्य का जो अंगुल होता है वह स्वांगुल। ६ अंगुल
= १ पाद दो पाद
= १ वितस्ति दो वितस्ति
= १ हाथ दो हाथ
= एक किष्कु दो किष्कु
= १ दण्ड धनुष्य नाडी ८ हजार दण्डों का एक योजन कहा गया है। * अब पल्य से लेकर सागर का प्रमाण :
एक ऐसा गर्त बनाया जाए जो एक योजन बराबर लम्बा-चौड़ा तथा गहरा हो जिसकी परिधि इससे कुछ अधिक गुनी हो तथा जिसके चारों तरफ दीवारें बनाई जाएँ। इसमें एक से लेकर सात दिन के बालक -36 135
Period of Adinath