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Shri Ashtapad Maha Tirth
मरूदेवी के गर्भ में अवतरित हुआ। नौ माह पूर्ण होने पर चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय मरूदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिस पर इन्द्र इत्यादि देवों ने जन्मोत्सव मनाया। माता मरूदेवी के द्वारा देखे गए स्वप्नों में वृषभ (बैल) की प्रमुखता होने के कारण बालक का नाम भी वृषभदेव रख दिया गया, जिसका अर्थ है- श्रेष्ठ धर्मप्रणेता। माता-पिता उन्हें ऋषभ नाम से पुकारते थे। ऐसी मान्यता है कि ऋषभदेव जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारक थे। उनके शरीर और बाल्यकाल की अनेक विशेषताएँ साहित्यकारों ने अंकित की हैं।
भगवान् ऋषभदेव तीर्थङ्कर परम्परा के प्रथम तीर्थङ्कर हैं। अतः मान्यता के अनुसार उन्होंने स्वयं बिना किसी को गुरु बनाए अनेक विद्याओं और कलाओं की शिक्षा प्राप्त की। युवावस्था प्राप्त होने पर नाभिराज ने यशस्वती और सुनन्दा नामक कन्याओं से ऋषभदेव का विवाह किया। आवश्यक नियुक्ति में इनके नाम सुमंगला और सुनन्दा मिलते हैं। समय आने पर महादेवी यशस्वती ने पुत्र भरत और ब्राह्मी नामक पुत्री को जन्म दिया। बाद में इनके ९८ पुत्र भी हुए। ऋषभदेव की दूसरी रानी सुनन्दा से पुत्र बाहुबली और पुत्री सुन्दरी का जन्म हुआ। अभिधान राजेन्द्रकोश में इन सौ पुत्रों के नाम भी मिलते हैं। श्रीमद्भागवत में भी ऋषभदेव के सौ पुत्रों का उल्लेख है, जिनमें भरत सबसे बड़े थे।
* विद्या एवं कलाओं की शिक्षा :
भगवान् ऋषभदेव अपने पिता नाभिराज की भाँति अपने युग की जनता को उनके जीवन-निर्वाह के क्षेत्र में विभिन्न कर्मों की शिक्षा प्रदान करते रहते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान माना जाता है। स्त्री-शिक्षा के ऋषभदेव प्रथम गुरु हैं। ऋषभदेव ने साहित्य के तीनों अंगों-व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकारशास्त्र के ग्रन्थों की स्वयं रचना की और उन्हें अपनी पुत्रियों को भी पढ़ाया। उन्होंने ब्राह्मी पुत्री को लिपिविद्या (वर्णमाला) लिखना सिखाया और पुत्री सुन्दरी को अंकविद्या (संख्या) लिखना सिखाया। इस प्रकार लिपिविद्या और अंकविद्या का अविष्कार भगवान् ऋषभदेव द्वारा हुआ। उन्होंने अपने ज्येष्ठपुत्र भरत को अर्थशास्त्र और नृत्यशास्त्र सिखाया। वृषभसेन नामक पुत्र को गंधर्वशास्त्र की शिक्षा दी। अनन्त विजय नामक पुत्र को चित्रकला का अभ्यास कराया। प्राचीन शास्त्रों से पता चलता है कि ऋषभदेव ने बहत्तर कलाओं और चौसठ विज्ञानों की शिक्षा अपने पुत्रों को देकर उनकी शिक्षा का प्रसार जनमानस में भी किया। इस प्रकार ऋषभदेव ने शिक्षा के द्वारा भोगयुग को कर्मयुग में बदलने के लिए अपूर्व श्रम और पुरुषार्थ किया।
* कृषि संस्कृति और नागर-सभ्यता का पाठ :
कल्पवृक्षों के निरन्तर कमी होने के कारण उस युग के मनुष्यों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती थी। अतः लोग राजा नाभिराज के पास गए। उन्होंने प्रजा की समस्याओं के समाधान के लिए राजकुमार ऋषभ को संकेत किया। तब ऋषभदेव ने प्रजा को कर्म करने की शिक्षा देते हुए असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः कर्मों को करने की जानकारी प्रदान की। आदिपुराण और आवश्यक चूर्णि में तत्कालीन आजीविका के विभिन्न उपायों और कार्यों का वर्णन प्राप्त होता है । इन छः कर्मों से अनाज तो प्राप्त होता था किन्तु उसे पकाकर कैसे खाया जाय, इससे लोग अभिज्ञ थे। तब ऋषभदेव ने प्रजा को अग्नि के उपयोग की जानकारी कराई और कुम्हार के पहिये (चाक) के उपयोग द्वारा बर्तनों के निर्माण और गति की शिक्षा दी। इस प्रकार इन विभिन्न कर्मों द्वारा वन-संस्कृति के लोगों
Bhagwan Rushabhdev
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