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Shri Ashtapad Maha Tirth
का परित्याग कर अपने ज्येष्ठ बन्धु भरत की निष्कपट बुद्धि से सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है।
इस तरह सुशिक्षित कर सौ पुत्रों में ज्येष्ठ भरत को भगवद् भक्त परायण जानकर और शासनसूत्र का निर्वाह करने में सर्वथा योग्य समझकर राज्य पदासीन कर दिया ।६२
५. पूर्ण त्यागी
भरत को राज्यभार सौंपकर भगवान् ऋषभ स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों को भक्ति, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिये पूर्णतः विरक्त हो गये। उन्होंने केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा, अन्य सब कुछ छोड़कर वे सर्वथा पूर्ण त्यागी हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे, उन्मत्त का सा वेष था, इस स्थिति में वे अग्निहोत्र की अग्नियों को अपने में ही समाहित करके संन्यासी बनकर 'ब्रह्मावर्त' देश से बाहर निकल गये। वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो उससे बात भी नहीं करते थे। अवधूत का वेश बनाकर जड़, अंध, बधिर, गूंगे अथवा पिशाचग्रस्त मनुष्य की भाँति पागलों की तरह यत्र-तत्र विचरने लगे। मार्ग में अधम पुरुष उन्हें ललकार कर, ताड़ना देकर, उनके शरीर पर मल-मूत्र कर, धूल और पत्थर आदि मारकर अनेक प्रकार के दुर्वचन कहकर उन्हें सताते, परन्तु जिस प्रकार वनहस्ती मक्षिकाओं के आक्रमण की परवाह नहीं करता, तथैव वे भी इन कष्टों से तनिक भी विचलित नहीं होते और सदा आत्मस्थ रहते थे।
६. अजगर वृत्ति
जब भगवान् ऋषभदेव ने देखा, कि यह मानव-मेदिनी योग-साधना में विघ्न रूप है अतः अब बीभत्सवृत्ति से रहना ही उचित है, तब उन्होंने अजगर वृत्ति (एक ही स्थान पर स्थित रहकर प्रारब्ध कर्मों का भोग करना) धारण की। वे लेटे-लेटे ही अन्नादि का भोजन करते और पड़े-पड़े ही मल-मूत्रदि का त्याग करते, जिससे उनका शरीर मल-मूत्र से सन जाता था। परन्तु उनके मल-मूत्र से ऐसी सुगन्ध निकलती थी, कि उससे दस योजन पर्यन्त देश सुगन्धित हो उठता था। इसी प्रकार कुछ दिन तक उन्होंने गौ, मृग व कौओं की वृत्ति को धारण किया और उन्हीं की भांति कभी खड़े हुए, कभी बैठे हुए अथवा कभी लेटकर आहार-निहार आदि व्यवहार करने लगे। इस प्रकार नानाविध योगों का आचरण करते हुए भगवान् ऋषभदेव को अनेकों अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हुईं, पर उन्होंने उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।
७. अद्भुत अवधूत
भगवान् ऋषभदेव लोकपाल शिरोमणि होकर भी सब ऐश्वर्यों को तृणतुल्य त्याग कर अकेले अवधूतों की भाँति विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे। वे दक्षिण प्रान्त के कर्णाटक देश में जाकर कूटक पर्वत के बगीचे में मुख में पत्थर का ग्रास लेकर चिरकाल तक उन्मत्तवत् केश खोले घूमते रहे। यद्यपि वे जीवन्मुक्त थे, तो भी योगियों को देह-त्याग की विधि सिखाने के लिये उन्होंने स्थूल शरीर का त्याग करना चाहा। जैसे कुम्भकार का चाक घुमाकर छोड़ देने पर भी थोड़ी देर तक स्वयं ही घूमता रहता है, उसी तरह लिंग-शरीर का त्याग कर देने पर भी योगमाया की वासना द्वारा भगवान् ऋषभ का स्थूल शरीर संस्कारवश भ्रमण करता हुआ कृटकाचल पर्वत के उपवन को प्राप्त
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श्रीमद्भागवत ५।५२८
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Rushabhdev : Ek Parishilan