________________
Shri Ashtapad Maha Tirth.
हुआ। इसी समय वायुवेग से झूमते हुए बांसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेवजी को शरीर सहित भस्म कर डाला। इस प्रकार ऋषभदेव ने संसार को परमहंसों के श्रेष्ठ आचरण का आदर्श प्रस्तुत कर अपनी लीला संवरण की। ८. महाराजा भरत
भगवान् ऋषभदेव की आज्ञा का पालन कर भगवद् भक्त भरत ने शासन-सूत्र संभाला और विश्वरूप की कन्या ‘पञ्चजनी' के साथ विवाह किया। जिस प्रकार तामस अहंकार से शब्दादि पाँच भूत तन्मात्र उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पञ्चजनी के गर्भ से 'सुमति, राष्ट्रभृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु' नामक पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जो सर्वथा पितातुल्य थे। महाराजा भरत भी स्वकर्मनिरत प्रजा का अत्यन्त वात्सल्य भाव से पालन करने लगे। इन्होंने यज्ञ-पुरुषरूप भगवान् का समय-समय पर अपने अधिकार के अनुसार 'अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयाग' प्रभृति छोटे-बड़े यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक आराधन किया। उस यज्ञकर्म से होने वाले पुण्यरूप फल को वे यज्ञ-पुरुष भगवान् को अर्पित कर देते थे। इस प्रकार भक्तियोग का आचरण करते हुए उन्हें कई हजार वर्ष व्यतीत हो गये।
एक करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर राज्य-भोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ और उन्होंने वंशपरम्परागत सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया, स्वयं पुलस्त्य महर्षि के आश्रम (हरिक्षेत्र) को चले गये। महर्षि भरत गण्डकी नदी के किनारे पुलस्त्याश्रम की पुष्प-वाटिका में रहते हुए विषय-वासनाओं से मुक्त होकर अनेक प्रकार के पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल, कन्द, फल आदि सामग्रियों से भगवान् की अर्चना करने लगे। इस प्रकार सतत भगवदाराधना करने से उनका हृदय भगवत्प्रेम से भर गया, जिससे उनकी भगवद्आराधना ठीक तरह से नहीं हो पाती थी। वे भगवत्प्रेम में इतने मस्त हो जाते कि अर्चना-विधि विस्मृति के गर्त में खो जाती थी। ९. भरतजी की साधना
____ एक दिन भरतजी गंडकी नदी में स्नान-सन्ध्यादिक नित्य नैमित्तिक कर्म करके ओंकार का जाप करते हुए तीन घण्टे तक नदी-तट पर बैठे रहे। इतने में एक प्यासी हिरणी वहाँ आयी, उसने ज्योंही जल पीना प्रारम्भ किया, कि सिंह की गम्भीर गर्जना से वह भयाकुल हो गई। जल पीना छोड़कर उसने बड़े वेग से नदी के उस पार छलांग लगायी। छलांग मारते हुए असमय ही उसका गर्भपात हो गया। मृगी तो नदी के उस पार पहुँच गयी, किन्तु वह मृग-शावक बीच जल-धारा में ही गिर पड़ा। मृगी भी शारीरिक वेदना और भय से अभिभूत हुई एक गुफा में पहुँची और मर गई।
यह समस्त दृश्य प्रत्यक्ष निहारकर भरतजी का कोमलहृदय करुणा से भर गया। उन्होंने उस शावक को जल-धारा से बाहर निकाला, और उस मातृहीन मृग-छौने को अपने आश्रम में ले आये। मृग-शावक के प्रति भरतजी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी, वे बड़े चाव से उसे खिलाते, पिलाते, हिंसक जन्तुओं से उसकी रक्षा करते, उसके शरीर को खुजलाते और सहलाते। इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी मृग-शावक के प्रति अत्यन्त गाढ़ आसक्ति हो गई। इस कारण कुछ ही दिनों में उनके यम-निमय, और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य छूट गये। उनकी आसक्ति कर्त्तव्य-बुद्धि के रूप में आकर उन्हें धोखा देने लगी। वे सोचते कि कालचक्र ने ही इस मृग-छौने को माता-पिता से छुड़वाकर मेरी शरण में पहुँचाया है, अतः मुझे अपने आश्रित की सेवा करनी चाहिये।
Rushabhdev : Ek Parishilan
-6264