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॥ रावण और वाली मुनि ।।
रावण ने एकदिन अपनी राजसभा में सुना कि, वानरों का राजा वाली बहृत बलवान है । अन्य के प्रतापी बल से जलते हुए रावण ने तुरन्त ही वाली मुनि के पास दूत भेजा और पहलेसे चलता हुआ स्वामी-सेवक के संबन्ध का वृत्तान्त कहलवाया और कहा कि “इसको आगे बढ़ाते हुए आप रावण की सेवा करें ।”
यह सुनकर क्रोधित हुए वाली ने कहाँ कि "मैं अरिहन्त भगवान् के अलावा किसी का सेवक नहीं हूँ।'' वाली की यह बात सुनकर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ और फौरन वाली के साथ घमासान युद्ध किया ।
शस्त्रों द्वारा उसके साथ युद्ध करके अन्तमें चन्द्रहास नाम की तलवार के साथ लंकेश्वर रावण को अपनी बगल में दबाकर चारों समुद्रों तक फैली हुई पृथ्वी में वाली घूम आया। बाद में रावण को उसने छोड़ दिया। वाली को वैराग्य हो जाने से अपने राज्य पर सुग्रीव को बिठाकर स्वयं उसने प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। सुग्रीव ने दशकण्ठ रावण को अपनी बहन श्रीप्रभा दी और वाली के पुत्र चन्द्ररश्मि को युवराज पद पर स्थापित किया।
एक बार रावण वैतादयगिरि के ऊपर रत्नावली के साथ विवाह करने के लिये आकाशमार्ग से जा रहा था। उस समय रास्ते में उसका विमान अष्टापद पर्वत पर स्खलित हो गया। विमान की इस तरह की रुकावट के कारण की खोज करने पर उसने वहाँ पर ध्यानारूढ़ और स्तम्भ की तरह निश्चल वाली को देखा। 'अब भी दम्भ से साधु का वेश धारण करनेवाला यह क्या मुझ पर क्रोध रखता है ? पहाड़ के साथ इसे भी उठा करके लवणसमुद्र में फेंक दूंगा'-ऐसा कह करके पृथ्वी को नीचे से खोदकर और उस में प्रवेश करके अत्यन्त गर्व से वह अपनी हजारों विद्याओं का स्मरण करने लगा। बादमें जिसके पत्थरों के जोड़ टूट रहे हैं, जिसके पास का समुद्र क्षुब्ध हो उठा है और जिस पर रहे हुए प्राणी भयभीत हो गए हैं-ऐसा पर्वत उसने उठाया। 'अरे ! मुझ पर मार्त्यभाव होने से यह इस तीर्थ का क्यों विनाश कर रहा है ? यद्यपि मैं निःसंग-राग-द्वेष से रहित हूँ फिर भी इसे दण्डित करने के लिये अपना बल तनिक दिखलता हूँ।' इस प्रकार मन में सोच कर के मुनीश्वर वाली ने अपने बाएँ पैर के अंगूठे के अगले हिस्से से अष्टापद पर्वत के शिखर को जरा दबाया। इस पर जिसका शरीर दब गया है ऐसा वह खून की उलटी करता हूआ मानो सारे विश्व को रुलाता हो इस तरह दीनपुरुष की तरह रोने लगा। उसका दीन-रुदन सुनकर कृपालु वाली ने तत्काल ही अँगूठे से दबाना छोड़ दिया क्योंकि उनका यह कार्य तो केवल शिक्षा के लिये ही था । क्रोधवश तो वह ऐसा कर ही नहीं रहे थे। वहाँ से बाहर निकलकर रावण ने वाली से क्षमा माँगी और चक्रवर्ती भरत द्वारा निर्मित चैत्य में भगवान् की पूजा करने के लिये गया। सारे रनवास के साथ उसने वहाँ पर भगवान् की अष्टप्रकारी पूजा की। बाद में वह तीर्थंकर भगवानों को नमस्कार करके नित्यालोक नाम के नगर में गया और वहाँ पर रत्नावली के साथ विवाह करके वह पुनः लंका में वापिस लौटा।
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Ravan & Vali Muni
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