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भगवती सूत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् का पञ्च महाव्रत युक्त तथा प्रतिक्रमण सहित धर्म के उपदेश का कथन किया गया है। भावी तीर्थङ्करों में अन्तिम तीर्थङ्कर का तीर्थ कौशलिक भगवान् ऋषभदेव अरिहन्त के जिन पर्याय जितना ( हजार वर्ष न्यून लाख पूर्व) वर्णित किया है। इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र में भगवान् ऋषभदेव का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
५. प्रज्ञापनासूत्र
प्रज्ञापना जैन आगम - साहित्य में चतुर्थ उपांग है। इसमें भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को जिस लिपि-विद्या का ज्ञान कराया था, उन अठारह लिपियों का निर्देश प्रस्तुत आगम में किया गया है। लिपियों के सम्बन्ध में हमने परिशिष्ट में विस्तार से विवेचन किया है।
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६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र
इसमें भगवान् ऋषभदेव का वर्णन सर्वप्रथम विस्तृत रूप से चित्रिति किया गया है। कुलकरों का उल्लेख करते हुए इसमें पन्द्रह कुलकरों के नाम निर्देश किये हैं- ( १ ) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर, (४) सीमंधर, (५) खेमंकर, (६) खेमंधर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुवंत, (९) यशः वंत, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित, (१३) मरुदेव, (१४) नाभि, (१५) ऋषभ ।
Shri Ashtapad Maha Tirth
उक्त पन्द्रह कुलकरों के समय प्रचलित दंडनीति तीन प्रकार की थी- प्रथम पाँच कुलकरों के समय 'ह' कार दण्डनीति, द्वितीय पाँच कुलकरों के समय 'मा' कार दंडनीति एवं अन्तिम पाँच कुलकरों के समय 'धिक्' कार दंडनीति प्रचलित थी ।
भगवान् ऋषभदेव से सम्बन्धित उनके कुमारकाल, राज्यकाल, बहत्तर कलाओं एवं चौंसठ कलाओं का उपवेश, भरत का राज्याभिषेक, भगवान् का प्रव्रज्या ग्रहण, केशलोंच, दीक्षाकालीन तप, उनके साथ दीक्षित होने वालों की संख्या, एक वर्ष पर्यन्त देवदूष्य धारण, उपसर्ग, संयमी जीवन का वर्णन, संयमी जीवन की उपमाएँ, केवलज्ञान का काल, स्थान, उपदेश, गण, गणधर एवं आध्यात्मिक परिवार का वर्णन है उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में उनके पाँच प्रधान जीवन प्रसंग हुए और निर्वाण अभिजित् में हुआ। संहनन, संस्थान, ऊंचाई, प्रव्रज्याकाल, छद्मस्थ जीवन, केवली जीवन आदि का उल्लेख है। निर्वाण का दिन (माघकृष्णा त्रयोदशी), निर्वाण स्थान, भगवान् के साथ निर्वाण होने वाले मुनि, निर्वाण काल का तप, निर्वाणोत्सव आदि विषय पर इस सूत्र के द्वितीय वक्षस्कार में पर्याप्त उसके पश्चात् तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती का एवं भारतवर्ष नामकरण के हेतु का सविस्तृत वर्णन है ।
७. उत्तराध्ययनसूत्र
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उत्तराध्ययन भगवान् महावीर के अन्तिम प्रवचनों का संग्रह है इसमें भगवान् ऋषभदेव के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा नहीं है, किन्तु अठारहवें अध्ययन में सम्राट भरत का उल्लेख है, जिन्होंने भारतवर्ष के शासन का एवं काम-भोगों का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की थी । ३०
प्रस्तुत आगम के तेवीसर्वे अध्ययन में 'केशी गौतमीय' की ऐतीहासिक चर्चा है उसमें गणधर गौतम केशी श्रमण से कहा- प्रथम तीर्थङ्कर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थकर के मुनियों द्वारा
२८ पण्णवणासुत्तंः मुनि पुण्यविजयजी द्वरा सम्पादित, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई - ३६, सन् १९७२ ।
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(क) आचार्यश्री अमोलकऋषिजी महाराज, हैदराबाद वी. सं. २४४६ ।
(ख) शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति सहित देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड बम्बई, सन् १९२०, धनपतसिंह, कलकत्ता, सन् १८८५ ।
उत्तराध्ययनसूत्र, १८ अध्ययन, गाथा ३४ ।
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