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Shri Ashtapad Maha Tirth
हैं। उसमें ऋषभदेव का बहुत सुन्दर और सुविस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, जो कि जैन परम्परा से बहुत कुछ मिलता जुलता है। जैन परम्परा की तरह ही वहाँ पर ऋषभदेव और भरत का जीवनदर्शन, मातापिता के नाम, उनके सौ पुत्रों का उल्लेख, उनकी ज्ञान-साधना, उपदेश तथा धार्मिक, सामाजिक नीतियों का प्रवर्तन और भरत के अनासक्ति-योग का विस्तृत वर्णन किया गया है।
श्रीमद्भागवत-पुराण में तीन स्थलों पर अवतारों का निर्देश किया है- प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय में उनकी संख्या बाईस है। द्वितीय स्कन्ध के सप्तम अध्याय में तेईस संख्या गिनाई है, और ग्यारहवें स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय में सोलह अवतारों का निर्देश किया है।
बाईस अवतारों में ऋषभदेव की परिगणनाक आठवें अवतार के रूप में करते हुए बताया है, कि"आठवीं बार नाभि राजा की मरूदेवी नामक पत्नी के गर्भ से ऋषभ ने अवतार ग्रहण किया और सभी आश्रम जिसे नमस्कार करते हैं, ऐसे परमहंसधर्म का उन्होंने अपदेश दिया।"५२
द्वितीय स्कन्ध के सप्तम अध्याय में जहाँ तेईस अवतार गिनाये हैं; लीलावतारों का वर्णन करते हुए लिखा है: "राजा नाभि की पत्नी सुदेवी के गर्भ से विष्णु भगवान् ने ऋषभ के रूप में जन्म लिया,
और इस अवतार में वे अनासक्त रहकर, इन्द्रिय तथा मन की शांति हेतु स्व-स्वरूप में अवस्थित रहकर समदर्शी के रूप में योग-साधना में संलग्न रहे। इस स्थिति को महर्षियों ने ‘परमहंसपद' अवस्था या 'अवधूतचर्या' कहा है।५३
भागवत के पञ्चम स्कन्ध में द्वितीय अध्याय से चतुर्दश अध्याय पर्यन्त ऋषभदेव तथा भरत का सविस्तार वर्णन किया है और ऋषभावतार के प्रति विशेष आदर-भाव द्योतित किया गया है। ऋषभावतार का वर्णन करते हुए वहाँ पर लिखा है
ब्रह्मा ने देखा, कि अभी तक मानवों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई, तो उन्होंने मानवों की संख्या बढ़ाने के लिये सर्वप्रथम स्वयम्भू, मनु और सतरूपा को उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रियव्रत के आग्नीध्र आदि नौ पुत्र हुए। प्रियव्रत ने आग्नीध्र को राज्य देकर तापस-वृत्ति अंगीकार कर ली। पिता के तपस्या में संलग्न हो जाने पर आग्नीध्र ने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। एक बार आग्नीध्र पुत्र-प्राप्ति की अभिलाषा से पूजा की सामग्री एकत्र कर मन्दराचल की एक गुफा में चला गया, और वहाँ तपस्या में लीन होकर ब्रह्मा की आराधना करने लगा। आदिपुरुष ब्रह्मा ने उसके मनोगत भावों को जानकर पूर्वचित्ति नामक अप्सरा को भेजा। अप्सरा आग्नीध्र के समीपवर्ती रमणीय उद्यान में विचरण करने लगी। १. पुत्र-याचना
आग्नीध्र बड़ा तेजस्वी और प्रतिभासम्पन्न था, उसने पूर्वचित्ति अप्सरा को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। अप्सरा उसके साथ हजारों वर्ष तक रही। तत्पश्चात् उसके नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्यक्, हिरण्यमय, कुरू, भद्राश्व और केतुमाल ये नौ पुत्र क्रमशः हुए। पूर्वचित्ति अप्सरा इसके बाद आश्रम से ब्रह्मा के पास चली गई। आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप को नौ भागों में विभाजित कर एक-एक खण्ड सभी को समान रूप से बांट दिया और स्वयं परलोकवसी हो गया। पिता के परलोकगमन के पश्चात् नाभि ने मरुदेवी से, किंपुरुष ने प्रतिरूपा से, हरिवर्ष ने उग्रदंष्ट्री से, इलावृत्त ने लता से, रम्यक् ने रम्या से, हिरण्यमय ने श्यामा से, कुरू ने नारी से, भद्राश्व ने भद्रा से और केतुमाल ने देवतीति के साथ पाणिग्रहण किया। ५२ अष्टमे मरूदेव्यां तु नाभेजति ऊरुक्रमः।
दर्शयन् वर्त्म धीराणां, सर्वाश्रम नमस्कृतम् ।। -श्रीमद्भागवत १।३।१३ ५३ नामेरसावृषभ आस सुदेविसूनु,
र्यों बैनचार समदृक् जडयोगचयाम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति,
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः।। -श्रीमद्भागवत २७।१० Rushabhdev : Ek Parishilan
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