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Shri Ashtapad Maha Tirth
कैलाश पर्वत शिवधाम, गंगावतरण, आदि अनेक प्रसंग/विशेषताएँ ऋषभदेव के जीवन से भी जुड़ी हुई हैं। दोनों अवैदिक देवता हैं और लोक देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं। कामदेव पर दोनों ने विजय प्राप्त की है और आत्मज्ञान का तृतीय नेत्र प्रकट किया है। अतः ऋषभदेव किसी जाति, सम्प्रदाय, वर्ग विशेष के देवता नहीं हैं, अपितु वे आत्मधर्म के आदि प्रणेता हैं जिन्होंने कर्म और धर्म की समान रूप से शिक्षा दी है। वास्तव में ऋषभदेव भारतीय संस्कृति के समन्वय के सूत्र हैं, जिसमें सभी धर्म सरोवर आकर आश्रय पाते हैं और उनमें अनेकान्त का कमल खिलता है। प्राचीन मनीषी पं. सुखलाल संघवी ने यह निष्कर्ष ठीक ही दिया है कि- "ऋषभ जीवन बहुत दीर्घकाल से आर्यजाति का आदर्श माना जाता रहा है। और समस्त मानव जाति का विशुद्ध आदर्श बनने की योग्यता भी रखता है।” ऋषभदेव परिपूर्ण पुरुष थे। उन्होंने काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को स्वयं जिया और दूसरों के लिए इनके आदर्श स्थापित किये। मानवीय गुणों के विकास की सभी सीमाएँ उन्होंने उद्घाटित की हैं, यही सच्चा जैन धर्म है । मूर्त और अमूर्त जगत् के बीच, प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच, अभाव और प्रभाव के बीच सन्तुलन स्थापित करने की कला भगवान् ऋषभदेव ने मानव को सिखायी यही उनका अवदान है। यही उनकी पहिचान है। वर्तमान युग का जैनधर्म तो ऋषभदेव द्वारा प्ररूपित आत्मधर्म के पौधे की अनेक फसलों में से एक अनमोल फल है।
सन्दर्भ :
१. तिलोयपण्णत्ति (यतिवृषभ) २. आदिपुराण (जिनसेन) ३. हरिवंशपुराण (जिनसेन) ४. आवश्यकनियुक्ति, चूर्णि एवं वृत्ति (आगमोदय समिति) ५. भगवान् ऋषभदेव-एक परिशीलन-(देवेन्द्र मनि) ६. जैनधर्म- (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) ७. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास- (पं. बलभद्र जैन) ८. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान-(डॉ. हीरालाल जैन) ९. चार तीर्थंकर- (पं. सुखलाल संघवी) १०. हिन्दू सभ्यता- (राधा कुमुद मुखर्जी) ११. हिन्दी विश्वकोश, जिल्द। एवं ३ १२. धम्मकहाणुयोगो- मुनि कन्हैयालाल "कमल", भाग-१
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Bhagwan Rushabhdev