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Shri Ashtapad Maha Tirth.
अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने अग्नि को प्रज्वलित किया । उस समय अग्निकुमारों और वायुकुमारों के नेत्र अश्रुओं से पूर्ण और शोक से बोझिल बने हुए थे। गोशीर्ष चन्दन की काष्ठ से चुनी हुई उन चिताओं में देवों द्वारा कालागरू आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्य डाले गये। प्रभु के और उनके अन्तेवासियों के पार्थिव शरीरों का अग्नि संस्कार हो जाने पर शक्र की आज्ञा से मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक से उन तीनों चिताओं को ठण्डा किया। सभी देवेन्द्रों ने अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की दादों और दांतों को तथा शेष देवों ने प्रभु की अस्थियों को ग्रहण किया।
तदुपरान्त देवराज शक्र ने भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को सम्बोधित करते हुए कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्रता से सर्वरत्नमय विशाल आलयों (स्थान) वाले तीन चैत्य स्तूपों का निर्माण करो। उनमें से एक तो तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव की चिता के स्थान पर हो। उन चार प्रकार के देवों ने क्रमशः प्रभु की चिता पर, गणधरों की चिता पर और अणगारों की चिता पर तीन चैत्य स्तूपों का निर्माण किया ।
आवश्यक नियुक्ति में उन देवनिर्मित और आवश्यक मलय में भरत निर्मित चैत्यस्तूपों के सम्बन्ध में जो उल्लेख है, वह इस प्रकार है :
मडयं मयस्स देहो, तं मरुदेवीए पढम सिद्धो त्ति ।
देवेहिं पुरा महियं झावणया अग्गिसक्कारो य ॥ ६० ॥
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सो जिणदेहाईणं, देवेहिं कतो चितासु थूभा य ।
सहो व रूण्णसहो लोगो वि ततो तहाय कतो ।।६१ ।। तथाभगवद्देहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तुपा कृता, ततो
आवश्यक मलय में लिखित है
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लोकेऽपि तत आरभ्य मृतक दाह स्थानेषु स्तुपा प्रवर्तन्ते ।।
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आवश्यक मलय
आचारांग नियुक्ति के अतिरिक्त आवश्यक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं से भी अष्टापद तीर्थ का विशेष परिचय मिलता है- आवश्यक सूत्र जैनागम के अन्तर्गत चार मूल सूत्रों में द्वितीय है। जीवन की वह क्रिया जिसके अभाव में मानव आगे नहीं बढ़ सकता वह आवश्यक कहलाती है। आवश्यक सूत्र की सबसे प्राचीन व्याख्या आवश्यक निर्युक्ति है जिसमें भगवान् ऋषभदेव के चरित्र का वर्णन मिलता है जिसके अन्तर्गत उनका अष्टापद पर विहार करने, निर्वाण प्राप्त करने तथा भरत द्वारा चैत्यों का निर्माण करने का विवरण है...
तित्थयराण पढमो असभरिसी विहरिओ निरूवसग्गो । अट्ठावओ जगवरो, अग्ग (य) भूमि जिणवरस्स ।। ३३८ ।।
Adinath Rishabhdev and Ashtapad
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अह भगवं भवहमणो, पुव्वाणमणूणगं सयसहस्सं । अणुपुब्बीं बिहरिऊणं, पत्तो अट्ठावयं सेलं ।।४३३ ।। अट्ठावयंमि सेले, चउदस भत्तेण सो महरिसीणां । दसहि सहस्सेहिं समं निव्वाणमणुत्तरं पत्तो निव्वाणं चिइगागिई, जिणास्स इक्खाग सेसयाणं च । सकहा थूभरजिणहरे जायग तेणाहि अग्गित्ति ।। ४३५ ।।
।।४३४ ।।
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