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Shri Ashtapad Maha Tirth
आन्ध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद से ४५ मील उत्तर-पूर्व में कुल्पाक तीर्थ है जिसका वर्णन विविध तीर्थ कल्प के अन्तर्गत माणिक्य देव कल्प के रूप में प्राप्त होता है । इस तीर्थ का पौराणिक इतिहास अष्टापद से सम्बन्धित है जो इस प्रकार है... पूर्व काल में भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद पर्वत पर जिन ऋषभदेव की माणिक्य की एक पृथक् प्रतिमा निर्मित कराई थी जो माणिक्य देव के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह अत्यन्त प्रभावशाली प्रतिमा है। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना था कि भरतेश्वर की मुद्रिका में स्थित पाचिरत्न से यह प्रतिमा बनायी हुई है। इस प्रतिमा की पूजा चिरकाल तक अष्टापद में हुई। उसके बाद इस प्रतिमा को सर्वप्रथम विद्याधरों ने, फिर इन्द्र ने, उसके बाद रावण ने अपने-अपने यहाँ लाकर उसकी पूजा की। लंका दहन के समय यह प्रतिमा समुद्र में डाल दी गयी और बहुत काल बीतने पर कन्नड़ देश के अन्तर्गत कल्याण नगरी के राजा शंकर ने पद्मावती देवी के संयोग से उक्त प्रतिमा प्राप्त की और उसे तेलंग देश के कुलपाक नगर में एक नव निर्मित जिनालय में स्थापित कर दी और उसके व्यय हेतु १२ ग्राम प्रदान किये।
अष्टापद पर्वत ऋषभदेवकालीन अयोध्या से उत्तर की दिशा में अवस्थित था। भगवान् ऋषभदेव जब कभी अयोध्या की तरफ पधारते, तब अष्टापद पर्वत पर ठहरते थे और अयोध्यावासी राजा प्रजा उनकी धर्म सभा में दर्शन-वन्दनार्थ तथा धर्म-श्रवणार्थ जाते थे, परन्तु वर्तमान कालीन अयोध्या के उत्तर दिशा भाग में ऐसा कोई पर्वत आज दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे अष्टापद माना जा सके । इसके अनेक कारण ज्ञात होते हैं, पहले तो यह कि भारत के उत्तरदिग्विभाग में विद्यमान पर्वत श्रेणियाँ उस समय में इतनी ठण्डी और हिमाच्छादित नहीं थीं जितनी आज हैं। दूसरा कारण है कि अष्टापद पर्वत के शिखर पर भगवान् ऋषभदेव, उनके गणधरों तथा अन्य शिष्यों का निर्माण होने के बाद देवताओं ने तीन स्तूप और चक्रवर्ती भरत ने सिंह निषद्या नामक चैत्य बनवाकर उसमें चौबीस तीर्थंकरों की वर्ण तथा मनोपैत प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाके, चैत्य के चारों द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल स्थापित किये थे। इतना ही नहीं, पर्वत को चारों ओर से छिलवाकर सामन्य भूमिगोचर मनुष्यों के लिए, शिखर पर पहुँचना अशक्य बनवा दिया था। उसकी ऊँचाई के आठ भाग क्रमशः आठ मेखलायें बनवाई थीं और इसी कारण से इस पर्वत का अष्टापद नाम प्रचलित हुआ था। भगवान् ऋषभदेव के इस निर्वाण स्थान के दुर्गम बन जाने के बाद, देव, विद्याधर, विद्याचरण लब्धिधारी मुनि और जंघाचारण मुनियों के सिवाय अन्य कोई भी दर्शनार्थ अष्टापद पर नहीं जा सकता था और इसी कारण से भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी धर्मोपदेश-सभा में यह कहा था कि जो मनुष्य अपनी आत्मशक्ति से अष्टापद पर्वत पर पहुँचता है वह इसी भव में संसार से मुक्त होता है।
अष्टापद के अप्राप्य होने का तीसरा कारण यह भी है कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत स्थित जिनचैत्य, स्तूप आदि को अपने पूर्वज भरत चक्रवर्ती के स्मारकों की रक्षार्थ उसके चारों तरफ गहरी खाई खुदवाकर उसे गंगा के जल प्रवाह से भरवा दिया था। ऐसा प्राचीन जैन कथा साहित्य में किया गया वर्णन आज भी उपलब्ध होता है ।
आदिनाथ ऋषभदेव की निर्वाणभूमि होने के कारण तीर्थों में सबसे प्राचीन अष्टापद तीर्थ माना जाता है। जिन मन्दिरों और मूर्तियों, स्तूपों के उद्भवों की यह महत्वपूर्ण पौराणिक पृष्ठभूमि है। जैनेत्तर साहित्य में इसे कैलाश के नाम से सम्बोधित किया गया है। जैन शास्त्रों में भी अष्टापद का नाम कैलाश बताया गया है।
"Over the high region of the Himalayas was the paradise, of Nirvana and the final resting place of the Jains above the vault of heaven.... Tirthankaras (Saviours) have abdicated and gone north to Kailasa and Mansarovar, where, dropping their mortal frames, they have ascended to their final abode." (Ascent To The Divine The Himalaya Kailasa Mansarovar).
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- Adinath Rishabhdev and Ashtapad