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Shri Ashtapad Maha Tirth
"तीसे (अउज्झा) अ उत्तरदिसाभाए वारसाजोअणेसुं अट्ठावओ नाम कैलासापरभिहाणो रम्भो नगवरो अट्ठजोअणुच्ची सच्छफालिहसिलामओ, इत्तुच्चिअलोगे धवलगिरित्ति पसिद्धो।"
अर्थात् अयोध्या के उत्तर दिशा भाग में बारह योजन दूर अष्टापद नामक सुरम्य पर्वत है, जिसका दूसरा नाम कैलाश है। यह आठ योजन ऊँचा है और निर्मल स्फटिक शिलाओं से युक्त है। यह लोक में धवलगिरि के नाम से भी प्रसिद्ध है।
इस उल्लेख से यह सिद्ध हो जाता है कि अष्टापद, कैलाश और धवलगिरि ये सब समानार्थक और पर्यायवाची हैं।
इससे पहले प्रश्न का उत्तर तो मिल जाता है कि अष्टापद और कैलाश पर्यायवाची हैं, किन्तु शेष प्रश्नों का उत्तर खोजना शेष रह जाता है। सम्पूर्ण हिमालय को सिद्ध क्षेत्र मान लेने पर अष्टापद और कैलाश का पृथक् सिद्धक्षेत्र के रूप में उल्लेख करने की क्या संगति हो सकती है ? किन्तु गहराई से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अष्टापद और कैलाश हिमवान् या हिमालय के नामान्तर मात्र हैं । धवलगिरि शब्द से इस बातका समर्थन हो जाता है । हिमालय हिम के कारण धवल है, इसलिए वह धवलगिरि भी कहलाता है । अतः धवलगिरि के समान हिमालय को भी अष्टापद और कैलाश का पर्यायवाची समझ लेना चाहिए।
इस मान्यता को स्वीकार कर लेने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि कैलाश या अष्टापद कहने पर हिमालय में भागीरथी, अलकनन्दा और गंगा के तटवर्ती बदरीनाथ आदि से लेकर कैलाश नामक पर्वत तक का समस्त पर्वत प्रदेश आ जाता है। इसमें आजकल के ऋषिकेश, जोशीमठ, बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, जमनोत्री और मुख्य कैलाश सम्मिलित हैं। यह पर्वत प्रदेश अष्टापद भी कहलाता था, क्योंकि इस प्रदेश में पर्वतों की जो शृंखला फैली हुई है, उसके बड़े-बड़े और मुख्य आठ पद हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- कैलाश, गौरीशंकर, द्रोणगिरि, नन्दा, नर, नारायण, बदरीनाथ और त्रिशूली।
जैन पुराणों से ज्ञात होता है कि जब ऋषभदेव राज्यभार संभाल ने योग्य हुए, तो महाराज नाभिराज ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। (आदिपुराण १६।२२४)। जब ऋषभदेव नीलांजना अप्सरा की आकस्मिक मृत्यु के कारण संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये और दीक्षा ली, उस समय भी महाराज नाभिराय और रानी मरुदेवी अन्य लोगों के साथ तप कल्याणक का उत्सव देखने के लिए पालकी के पीछे रहे थे। (आदिपुराण १७।१७८)। वन में पहुंचने पर ऋषभदेव ने माता-पिता और बन्धु-जनों से आज्ञा लेकर श्रमण-दीक्षा ले ली। (पद्मपुराण ३।२८२)। इन अवतरणों से यह तो स्पष्ट है कि तीर्थंकर ऋषभदेव के दीक्षा महोत्सव के समय उनके माता-पिता विद्यमान थे। किन्तु इसके बाद वे दोनों कितने दिन जीवित रहे अथवा उन्होंने अपना शेष जीवन किस प्रकार और कहाँ व्यतीत किया, इसके सम्बन्ध में जैन साहित्य में अभी तक कोई स्पष्ट उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। किन्तु इस विषय में हिन्दु पुराण 'श्रीमद्भागवत' में महर्षि शुकदेव ने जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। महर्षि लिखते हैं
“विदितानुरागमापौर प्रकृति जनपदो राजा नाभिरात्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य सह मरुदेव्या विशालायां प्रसन्न निपुणेन तपसा समाधियोगेन... महिमानमवाप।"
-श्रीमद्भागवत ५।४।५
इसका आशय यह है कि जनता भगवान् ऋषभदेव को अत्यन्त प्रेम करती थी और उनमें श्रद्धा रखती थी। यह देखकर राजा नाभिराय धर्ममर्यादा की रक्षा करने के लिए अपने पुत्र ऋषभदेव का राज्याभिषेक
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