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Shri Ashtapad Maha Tirth
में लिखा है कि जिस प्रकार खड्ग से खड्गधारी, घोड़े से घुड़सवार, हाथी से हस्तिपाल, इक्षु से इक्ष्वाकु, विद्या से विद्याधर वंश होता है उसी तरह वानरों के चिह्न से वानरों का वंश अभिव्यक्त होता है। चूँकि वानर के चिह्न से लोगों ने छत्र आदि अंकित किये थे इसलिए वे विद्याधर वानर कहलाए। इस प्रकार ऋषभदेव से इक्ष्वाकु वंश, सूर्य वंश, चन्द्रवंश और विद्याधर वंश जिसके अन्तर्गत राक्षस और वानर वंश की उत्पत्ति हुई।
ऋषभ का अर्थ 'श्रेष्ठ' होता है। 'ऋषि गती' धातु से ऋषभ का अर्थ गतिशील भी है । ऋषभदेव वस्तुतः प्रत्येक कुशल कर्म के विकास पथ पर गतिशील रहे, अग्रणी रहे, श्रेष्ठ रहे। ऋषभ शब्द गंभीर, स्पष्ट एवं मधुर नाद का वाचक भी है जो सप्तस्वरों में से एक है । ऋषभ का एक महत्त्वपूर्ण अर्थ ज्ञाता दृष्टा भी है। 'ऋ' का अर्थ आया हुआ, 'ष' का अर्थ श्रेष्ठ तथा 'भ' का अर्थ है ग्रह या नक्षत्र । अतः ऋषभ का अर्थ हुआ श्रेष्ठ नक्षत्रों में आया हुआ । जैन पुराण के अनुसार ऋषभदेव के दायें जंघा में बैल का चिन्ह होने से उनका वृषभ नाम भी व्यवहारित हुआ।
“ उत्तराध्ययन २५ श्लोक ६ में काश्यप को धर्म का आदि प्रवर्तक बताया गया है । भगवान् ऋषभ आदि काश्यप हैं उन्हें धर्म की अनेक धाराओं के आदि स्रोत के रूप में खोजा जा सकता है। यह विषय अभी तक अज्ञात रहा है। इस विषय में अनुसंधान आवश्यक है। (आचार्य महाप्रज्ञ जी)
भगवान् ऋषभदेव ने चैत्यकृष्णा अष्टमी के दिन चंद्र के उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग होने पर अपराह्न काल में दीक्षा ग्रहण की थी । हेमचन्द्राचार्य ने इस विषय में लिखा है
तदा चं चैत्रबहुलाष्टम्यां चन्द्रमसिश्रिते ।
नक्षत्र मुत्तराषाढ़ा महो भागेऽथ पश्चिमे ।।६५ ।।
ऋषभदेव की तक्षशिला यात्रा का वर्णन जैन साहित्य में मिलता है जिनदत्त सूरि रचित पंचानन्द पूजा, आवश्यक निर्युक्ति आदि ग्रन्थों में इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। तक्षशिला में ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि का राज्य था। वहाँ पर ऋषभदेव गये थे। इसका वर्णन पी. सी. दास गुप्ता ने अपने लेख "On Rishabha's visit To Taxila," में किया है। उनके अनुसार The legend Rishabhanan's journey to Taksasila to meet his son Bahubali is indeed incomparable in its glory and significance. In his studies in Jaina Art (Banaras, 1955 ) Umakant P. Shah has sumed up the story as follows :
"It is said that when Rishabh went to Taksasila, he reached after dusk; Bahubali (ruling at Takshshila) thought of going to pay his homage next morning and pay due respects along with his big retinue. But the Lord went away and from here, travelled through Bahali-Adambailla, Yonaka and preached to the people of Bahali, and to Yanakas and Pahlagas Then he went to Astapada and after several years came to Purimataka near Vinita, Where he obtained Kevalajnana." According to U.P. Shah the relevant verses show that Taksasilla was probably included in the Province of Bahali (Balkh-Bactria) in the age of Avasyaka Niryukti. As regards Risabha's visit it is told that next morning when Bahubali came to know of the Master's departure he "felt disappointed and satisfiled himself only by worshipping the spot where the Lord stood by installing an emblem-the dharmachakra- over it."
Adinath Rishabhdev and Ashtapad
as 174 a