Book Title: Ashtapad Maha Tirth Part 01
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 221
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth in Lohanipur, Patna". Historian K. P. Jayaswal declared that "It is the oldest Jain image yet found in India... In the face of similarities the nude torso of Harappa seems to represent an image of a Jina probably of Jain Rishabha." इसी सन्दर्भ मे प्रो० एस.आर. बेनर्जी ने लिखा है- "Jainism is a very old religion. There were 24 Tirthankars in Jainism. The first was known as Adinatha or Risabha deva and the 24th Tirhankara was Bhagavan Mahavira... If Lord Mahavira is attributed to the 6th century B.C. surely Rishabha deva, the 1st Tirthankar, must have belonged to a much earlier period. It is to be noted that the name Rishabha is found in the Rigveda, which dates back to 1500 B.C." (Understanding Jain Religion in a Historical Perspective. - Dr. Satya Ranjan Banerjee) जैनधर्म में तीर्थंकर को धर्म तीर्थ का संस्थापक माना गया है। 'नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में तीर्थंकर को धर्म का प्रारम्भ करने वाला, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्म मार्ग का सारथी और धर्म चक्रवर्ती कहा गया है। नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं आइगरणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं... पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवर-गंधहत्थीणं । लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोग-पईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं..... धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर-चाउरंत चक्कवट्टीणं..... जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं....। (कल्पसूत्र) जैनधर्म में तीर्थंकर का कार्य है - स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोकमंगल के लिए उस सत्यमार्ग या सम्यक मार्ग का प्रवर्तन करना है। वे धर्म-मार्ग के उपदेष्टा और धर्म-मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं। उनके जीवन का लक्ष्य होता है स्वयं को संसारचक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता के लिये प्रेरित करना और उनकी साधना में सहयोग प्रदान करना। तीर्थंकरों को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है। वे पुरुषोत्तम हैं, उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरीक कमल के समान वरेण्य और गन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है। वे लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर्ता, दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गये हैं। तीर्थङ्कर शब्द का प्रयोग आचारांग, उत्तराध्ययन, समवायांग, स्थानांग एवं भगवती आदि में मिलता है। संस्कृति में तीर्थ शब्द का अर्थ घाट या नदी है। अतः जो किनारे लगाये वह तीर्थ है। सागर रूपी संसार से पार लगाने के लिये धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं। बौद्ध ग्रन्थ दिनिकाय में छः तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है। (१) पूर्ण काश्यप, (२) मंक्खलि गोशाल, (३) अजित केश कम्बल, (४) प्रबुद्ध कात्यायन, (५) संजयबेलटिठ्ठपुत्र, (६) निगण्ठनातपुत्र । विशेषावश्यक भाष्य में तीर्थ की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि जिसके द्वारा पार हुआ जाता हैं उसको तीर्थ कहते हैं। यहाँ तीर्थ के चार भाग बताये हैं। तीर्थ नाम से संबोधित किये जाने वाले स्थान 'नाम तीर्थ' कहलाते हैं। जिन स्थानों पर भव्य आत्माओं का जन्म, मुक्ति आदि होती है और उनकी स्मृति में मन्दिर, प्रतिमा आदि स्थापित किये जाते हैं वे 'स्थापना तीर्थ' कहलाते हैं। जल में डूबते हुए व्यक्ति को पार कराने वाले, मनुष्य की पिपासा को शान्त करने वाले और मनुष्य शरीर के मल को दूर करने वाले 'द्रव्य तीर्थ' कहलाते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य के क्रोध आदि मानसिक विकार दूर होते हैं तथा व्यक्ति भवसागर से पार होता है, वह निर्ग्रन्थ प्रवचन 'भावतीर्थ' कहा जाता है। तीर्थ हर धर्म का केन्द्र स्थल तथा श्रद्धा स्थल हैं। तीर्थ वह स्थान है जहाँ किसी महापुरुष द्वारा साधना -36 181 - Adinath Rishabhdev and Ashtapad

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