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Shri Ashtapad Maha Tirth
'व्रात्य' 'प्रजापति' 'परमेष्ठी' 'पिता' और 'पितामह' है विश्व व्रात्य का अनुसरण करता है। श्रद्धा से जनता का हृदय अभिभूत हो जाता है। व्रात्य के अनुसार श्रद्धा, यज्ञ, लोक और गौरव अनुगमन करते हैं । व्रात्य राजा हुआ । उससे राज्यधर्म का श्रीगणेश हुआ। प्रजा, बन्धुभाव, अभ्युदय और प्रजातन्त्र सभी का उसी से उदय हुआ । व्रात्य ने सभा, समिति, सेना आदि का निर्माण किया ।
तं प्रजापतिश्च परमेष्ठी च पिता च पितामहश्चापश्च श्रद्धा च वर्ष भृत्वानुव्यवर्तयन्तः । एनं श्रद्धा गच्छति एनं यज्ञो गच्छति एनं लोको गच्छति । सोऽरज्यत् ततो राजन्योऽजायत, स विश्वः स बन्धूभयघमभ्युदतिष्ठित् ।।
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इन शब्दों द्वारा भगवान् ऋषभदेव का प्रारम्भिक परिचय दिया गया है कृषि, मसि, असि, कर्मयोग का व्याख्यान व्रात्य ने दिया। अयोध्या पूर्व की राजधानी है और ऋषभदेव की जन्मभूमि । फिर ऋषभदेव के सन्यास, तप, विज्ञान और उपदेश सभी का यथाक्रम वर्णन है । व्रात्य ने तप से आत्म-साक्षात्कार किया । सुवर्णमय तेजस्वी आत्मा का लाभ प्राप्त कर व्रात्य महादेव बन गये । (य महादेवोऽभूत) व्रात्य पूर्व की ओर गये, पश्चिम की ओर गये, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं को ओर उन्मुख हुए चारों और उनके ज्ञान, विज्ञान का अलोक फैला विश्व श्रद्धा के साथ उनके सामने नतमस्तक हो गया।
स्वयं ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव से प्रार्थना की गई है : " आदित्य त्वमसि आदित्य सद् आसीत् अस्तभ्रादधां वृषभो अंतरिक्षं जमिते वरिमागम पृथिका आसीत विश्व भुवनानी सम्राट् विश्वेतानि वरुणस्य वचनानि” ? ऋग्वेद ३०, अ. ३) " अर्थात् हे ऋषभदेव ! सम्राट् संसार में जगतरक्षक व्रतों का प्रचार करो। तुम ही इस अखण्ड पृथ्वी के आदित्य सूर्य हो, तुम्हीं त्वचा और साररूप हो, तुम्हीं विश्वभूषण हो और तुम्हीं ने अपने दिव्यज्ञान से आकाश को नापा है।"
"इस मंत्र में वरुण वचन से व्रतों का संकेत किया गया है। वास्तव में व्रतों के उद्गाता भगवान् ऋषभदेव ही थे। इस तथ्य को वेद ने नहीं, मनु ने भी स्वीकार किया है । यद्यपि मनुस्मृति में उन्हें वैवस्वत, सत्यप्रियव्रत, अग्निप्रभनाभि और ईर्वाकु (ऋषभदेव) को छट्टा मनु स्वीकार किया है और वेदकालीन दूसरी सूची में उन्हें वैवस्वत - वेन - घृष्णु बताया गया है। जैन आगमों में १४ मनुओं के स्थान पर सात कुलकरों का वर्णन प्राप्त होता है और उसमें सातवें कुलकर का नाम नाभि और ऋषभदेव बताया गया है। इस प्रकार वेदों के आधार पर यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि व्रात्य सम्प्रदाय के मूल संस्थापक और भारतीय संस्कृति के प्रतिष्ठापक भगवान् ऋषभदेव थे। कहने का सारांश इतना है कि ऋषभदेव ने व्रात्य धर्म, त्याग धर्म और परहंस धर्म का प्रतिपादन किया, जिसका समानार्थी अविकल और अक्षुण्ण रूप जैन धर्म है। जैनधर्म और व्रात्यधर्म दोनों पर्यायवाची हैं।" - इतिहास के अनावृत पृष्ठ आचार्य सुशील मुनिजी
विमलसूरि ने अपने पउमचरिउं में लिखा है कि मूलतः चार वंश प्रसिद्ध थे जिनकी उत्पत्ति ऋषभदेव से हुई। ऋषभदेव ने बाल्यावस्था में इक्षुदंड कुतूहल से हाथ में लिया जिससे उनका इक्ष्वाकु वंश कहलाया । उनके पुत्र भरत से आदित्ययशा, सिंहयशा, बलभद्र, वसुबल, महाबल आदि अनेक राजा इक्ष्वाकु वंश में हुए। आदित्ययशा के नाम से आदित्य अर्थात् सूर्यवंशी कहलाये । ऋषभदेव के दूसरे पुत्र सोमप्रभ के नाम से सोमवंश या चंद्र वंश की उत्पत्ति हुई । ऋषभदेव के पौत्र नमी और विनमी के द्वारा विद्याधर वंश बना । ये विधाओं से सम्पन्न थे इसलिये इन्हें विद्याधर कहा गया । विद्याधर वंशों के राजा से बचने के लिये राजा भीम ने एक महान् द्वीप में लंका नगरी की स्थापना की और इस द्वीप को राक्षस द्वीप कहा गया और उसके राजा को महाराक्षस इस वंश में मेघवाहन हुआ जिसके पुत्र का नाम राक्षस था जो इतना पराक्रमी था कि उसके पूरे वंश को ही राक्षस नाम प्राप्त हुआ । अहमिन्द्र नामक विद्याधर राजा ने भी कण्ठ नामक पुत्र को लंकापति कीर्तिधवल ने लवणसागर के द्वीप में बसाया। जहाँ वानरों की बहुता थी । अतः इस द्वीप में रहने वालों को वानर कहा जाने लगा और उनका वंश वानर वंश कहलाया । पउमचरिउं
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Adinath Rishabhdev and Ashtapad