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Shri Ashtapad Maha Tirth
quite a number of times been contrary to the effects of society. Because of the changes in society the basic mores and systematic social strata were dwindling in ancient times. Jainism was one of the more important religion of the world which emancipated the humanistic theory thereby ethically evaluating the social strata. Rishabh Deva and Bharat along with their descendents who reigned in the primaeval Indian soil, totally changed the face of society in this very ethical manner were human beings was the supreme and nothing non existed beyond this facade no Godheads or Gods whatsoever. (Religion And Society Edited by Prof Friedrich Stam - Pg 12 )
अम्नि की स्तुति के लिये वैदिक सूत्रों में जिन-जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है उनके अध्ययन से स्पष्ट है कि यह अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर इन्हें ऋषभदेव के लिये अभिहित किया गया है। क्योंकि उनका कर्म अग्नि के समान था । जिस प्रकार सूर्य जीव जगत् में प्राण का संचार करता है उसी प्रकार उन्होंने जीव जगत् में ज्ञान का संचार किया 'देवा अग्नि धारयन् द्रविणोदाम्' देवा अर्थात् अपने को देव संज्ञा से अभिवादन करने वाले आर्यगणों ने द्रविणोदाम् अर्थात् धन ऐश्वर्य प्रदान करने वाले अग्नि को धारयन् अपने आराध्यदेव के रूप में धारण कर लिया ।
यह सूत्र ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इससे पता चलता है कि भगवान् ऋषभदेव वैदिक संस्कृति के पूर्व के आराध्य देव थे। क्योंकि जीव जगत् का स्रोत अग्नि है, सूर्य के बगैर यह संसार नहीं चल सकता उसी तरह इस आरे में मनुष्यों के सारे संस्कार ऋषभदेव द्वारा किये गये इसलिये उनकी तुलना सूर्य और अग्नि से की जाती है अग्नि जीव जगत् का प्राण है उसी प्रकार इस जीव जगत् मैं मनुष्य के हर संस्कार का प्राण ऋषभदेव ही हैं।
'अपश्चमित्र' (जो संसार का मित्र है ।) 'धिपणा च साधन' (जो ध्यान द्वारा साध्य है), 'प्रन्नथा' (जो पुरातन है), 'सहसा जायमानः' (जो स्वयंभू है) सद्यः काव्यानि षडधन्त विश्वा' (जो निरन्तर विभिन्न काव्यस्तोत्रों को धारण करता है, अर्थात् जिसकी सभी जन स्तुति करते रहते हैं), 'देवो अग्नि धारयन् द्रविणोदाम्' (देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि को धारण कर लिया ।
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'पूर्वया निविदा काव्यतासो' (जो प्राचीन निविदों द्वारा स्तुति किया जाता है), 'यमा प्रजा अजन्यन् मनुनाम्' (जिसने मनुओं की सन्तानीय प्रजा की व्यवस्था की) 'विवस्वता चक्षुषा द्याम पञ्च' (जो अपने ज्ञान द्वारा द्यु और पृथ्वी को व्याप्त किए हुए हैं, देवों ने उस द्रव्यदाता को धारण कर लिया ।)
'तमीडेत महासंघ' (तुम उसकी स्तुति करो जो सर्वप्रथम मोक्ष का साधक है), 'अर्हत' ( सर्वपूज्य) है, 'आरीविशः उव्जः भृज्जसानम्' (जिसने स्वयं शरण में आने वाली प्रजा को बल से समृद्ध करके), 'पुत्रं भरतं सम्प्रदानुं' (अपने पुत्र भरत को सौंप दिया), 'देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि' (अग्नि देवता को ) 'धारयन्' ( धारण कर लिया ।)
'स मातरिश्वा' (वह वायु के समान निर्लेप और स्वतन्त्र है), 'पुरुवार पुष्टि' (अभीष्ट वस्तुओं का पुष्टिकारक साधन है), 'उसने स्वर्वितं' (ज्ञान सम्पन्न होकर), 'तनयाय' (पुत्र के लिए) 'गातं' (विद्या), 'विदद' (देवी), 'वह विशांगोपा' (प्रजाओं का संरक्षक है) 'पवितारोदस्यो' (अभ्युदय तथा निःश्रेयस का उत्पादक है), 'देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि' (अग्रनेता को ) ग्रहण कर लिया ।
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ऋग्वेद के ये सूत्र ऋषभदेव और अग्नि तथा सूर्य की समानता को स्पष्ट करते हैं । स्वर्गीय डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी ने ऋग्वेद के इस प्रथम श्लोक जो अग्नि को सम्बोधित है के साथ भी शब्द और भाव साम्य दोनों बताया है ।
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Adinath Rishabhdev and Ashtapad