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Shri Ashtapad Maha Tirth
* ऋषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ :
ऋषभदेव ने सबसे पहले क्षात्रधर्म की शिक्षा दी। महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है कि-क्षात्रधर्म भगवान् आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ और शेष धर्म उसके पश्चात् प्रचालित हुए। यथाक्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्त;। पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्म ।।
-महाभारत शांतिपर्व १६६४२० बह्माण्ड पुराण (२०१४) में प्रार्थिवश्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा है ।
प्रजाओं का रक्षण क्षात्रधर्म है, अनिष्ट से रक्षा तथा जीवनीय उपायों से प्रतिपालन ये दो गुण प्रजापति ऋषभदेव में विद्यामान थे। उन्होंने स्वयं दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर लोगों को शस्त्रविद्या सिखाई। शस्त्र शिक्षा पाने वालों को क्षत्रिय नाम भी प्रदान किया। क्षत्रिय का अन्तर्निहित भाव वही था। उन्होंने सिर्फ शास्त्र विद्या की शिक्षा ही नहीं दी अपितु सर्वप्रथम क्षत्रिय वर्ण की स्थापना भी की थी।
ऋषभदेव का यह वचन अधिक महत्त्वपूर्ण है कि केवल शत्रुओं और दुष्टों से युद्ध करना ही क्षात्रधर्मं नहीं है अपितु विषय, वासना, तृष्णा और मोह आदि को जीतना भी क्षात्रधर्म है। उन्होंने दोनों काम किये। शायद इसी कारण आज क्षत्रियों को अध्यात्म विद्या का पुरुस्कर्ता माना जाता है। जितना और जैसा युद्ध बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिये अनिवार्य है, उससे भी अधिक मोहादि अन्तर्शत्रुओं को जीतने के लिए अनिवार्य है। ऋषभदेव ने सारी पृथ्वी-समुद्रों पर राज्य किया, सारे विश्व को व्यवस्थित किया और फिर मोहादि शत्रुओं का विनाश करने में भी विलम्ब नहीं किया। आचार्य समन्तभद्र ने नीचे लिखे श्लोक में बड़ा ही भाव-भीना वर्णन किया है
"विहाय यः सागर-वारि-वाससं वधूमिवेमां वसुधाँ वधू सतीम। मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभु प्रव्राज सहिष्णुरच्युतः।।"
- स्वयंभू स्तोत्र १३ अर्थात्- समुद्र जल ही है किनारा जिसका (समुद्र पर्यन्त विस्तृत) ऐसी वसुधारूपी सती वधू को छोड़कर मोक्ष की इच्छा रखने वाले इक्ष्वाकुवंशीय आत्मवान् सहिष्णु और अच्युत प्रभु ने दीक्षा ले ली।
उन्होंने अपने आन्तरिक शत्रुओं को अपनी समाधि तेज से भस्म कर दिया और केवलज्ञान प्राप्त कर अचिंत्य और तीनों लोकों की पूजा के स्थान स्वरूप अर्हत् पद प्राप्त किया। तात्पर्य यह है कि क्षत्रिय का अर्थ केवल सांसारिक विजय ही नहीं है अपितु आध्यात्मिक विजय भी है।
वे चतुर्वर्णी (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और बाह्मण) व्यवस्था के सूत्रधार बने। चाणक्य की अर्थनीति में जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था पर अधिकाधिक बल दिया गया है, वह ऋषभदेव से प्रारम्भ हो चुकी थी।
भोगभूमि के बाद कर्मभूमि के प्रारम्भ में धरा और धरावासियों की आवश्यकताओं के समाधान के
प्रभदेव ने जिस घोर परिश्रम का परिचय दिया वही परिश्रम आत्मविद्या के पुरस्कर्ता होने पर भी किया। वे श्रमण आर्हत् धारा के आदि प्रवर्तक कहे जाते हैं। भागवतकार ने उन्हें नाना योगचर्याओं का आचरण करने वाले कैवल्यपति की संज्ञा तो दी ही है। (भागवत ५।६।६४) तथा साथ ही उन्हें वातरशना (योगियों), श्रमणों, ऋषियों और ऊर्ध्वगामी (मोक्षगामी) मुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता और श्रमण धर्म का प्रवर्तक माना है (भागवत ५।४।२०)
यहाँ श्रमण से अभिप्राय- "श्राम्यति तपक्लेशं सहते इति श्रमणः” अर्थात् जो तपश्चरण करें वे श्रमण हैं। श्री हरिभद्र सूरि ने दशवकालिक की टीका में लिखा है कि- "श्राम्यन्तीति श्रमणः तपस्यन्तीत्यर्थः।"
Adinath Rishabhdev and Ashtapad
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