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Shri Ashtapad Maha Tirth.
भास्करोदये। मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्तपल्यंको मुनिभिः समं ।। ३३८ || प्राविङमुखस्तृतीयेन शुक्लध्यानेन रुद्धवान् । योगत्रितयमत्येन ध्यानेनाघातिकर्मणां ।। ३३९ || पंचहस्वस्वरोच्चारणप्रमाणेन संक्षयं । कालेन विद्धत्प्रांतगुणस्थानमधिष्ठितः || ३४०|| शरीरत्रितयापाये प्राप्य सिद्धत्वपर्ययं । निजाष्टगुणसंपूर्णः क्षणात्तनुवातकः ।। ३४१ ।। नित्यो निरंजनः किंचिदूनो देहावमूर्तिभाक् । स्थितः स्वसुखसाद्भूतः पश्यन्विश्वमनारतं ||३४२ ।। तदाऽऽगत्य सुराः सर्वे प्रांतपूजाचिकीर्षया पवित्रं परमं मोक्षसाधनं शुचि निर्मलं ||३४३|| शरीरं भर्तुरस्येति परार्ध्यशिबिकार्पितं । अग्नींद्ररत्नभा-भासिप्रोत्तुंङ्गमुकुटोद्भुवा ||३४४|| चंदनागरुकर्पूरपारीकामीरजादिभिः । घृतक्षीरादिभिश्वाप्त वृद्धिना हुतभोजिना ||३४५|| जगद्गृहस्य सौगंध्यं संपाद्याभूतपूर्वकं । तदाकारोपमर्देन पर्यायांतरमानयन् ।।३४६ ।। अभ्यर्चितामग्निकुंडस्य गंधपुष्पादिभिस्तथा । तस्य दक्षिणभागेऽभूद्गणभृत्संस्क्रियानलंः || ३४७|| तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायगः । एवं वन्हित्रयं भूमाववस्थाप्यामरेश्वराः || ३४८|| ततो भस्म समादाय पंचकल्याणभागिनः । वयं चैवं भवामेति स्वललाटे भुजद्वये ।।३४९।। कंठे हृदयदेशे च तेन संस्पृश्य भक्तितः । तत्पवित्रतमं मत्वा धर्मरागरसाहिताः ।।३५० ।। तोषात्सपादयामांसुः संभूयानंदनाटकं । सप्तमोपांसकाद्यास्ते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणः || ३५१ || गार्हपत्यामिध, पूर्वं परमाहवनीयकं । दक्षिणाग्निं ततो न्यस्य संध्यासु तिसृषु स्वयं ||३५२ || तच्छिखित्रयसांन्निध्ये चक्रमातपवारणं ।
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की महापूजा की और इसी तरह चौदह दिन तक भगवान की सेवा की ।।३३६- ३३७ || माघकृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्र में भगवान् वृषभदेव ने पूर्व दिशा की और मुँहकर अनेक मुनियों के साथ-साथ पर्यंकासन विराजमान हुये, उन्होंने तीसरे सूक्ष्म - क्रियाप्रतिपाति नाम के शुक्ल ध्यान से मन बचन काय तीनों योगों का निरोध किया और फिर अंत के चौदहवें गुणस्थान में ठहरकर जितनी देर में अ, इ, उ, ऋ, लृ, इन पाँच ह्रस्व अक्षरों का उच्चारण होता है उतने ही समय में चौथे व्युपरत क्रियानिवृत्ति नाम के शुक्लध्यान से वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चारों अघाति कर्मों का नाश किया ।।३३८-३४०।। औदारिक, तेजस, कार्मण इन तीनों शरीरों के नाश होनेसे उन्हें सिद्ध पर्याय प्राप्त हुई, सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख, सूक्ष्मत्व, अव्याबाध और अवगाहनत्व ये निजके आठ गुण पूरे-पूरे प्रकट हो गये, क्षणभर में ही (उसी समय में) तनुवात वलय में जा पहुँचे तथा वहाँ पर नित्य, निरंजन, अपने शरीर से कुछ कम, अमूर्त, आत्मा से उत्पन्न हुये सुख में तल्लीन और निरंतर संसार को देखते हुये विराजमान हुये ।।३४१-३४२ ।। उसी समय मोक्षकल्याण की पूजा करने की इच्छा करते हुये सब देव आये, उन्होंने पवित्र, उत्कृष्ट, मोक्ष का साधन, स्वच्छ और निर्मल ऐसे भगवान के शरीर को बहुमूल्य पालकी में विराजमान किया। तदनन्तर जो अग्निकुमार जाति के देवों के इंद्र के रत्नों की कांति से देदीप्यमान ऐसे बडे भारी मुकुट से उत्पन्न हुई है तथा चंदन, अगर, कपूर, केशर आदि सुगन्धित पदार्थों से और घी दूध आदि से बढाई गई है ऐसी अग्नि से जो पहिले कभी देखने सुनने में नहीं आई ऐसी जगत्रूपी थर की सुगंधी प्रगटकर उस शरीर का पहिला आकार नष्टकर दूसरा आकार बना दिया अर्थात् उसे भस्म कर दिया पुष्प आदि द्रव्यों से उस अग्निकुंड की पूजा की तथा उसके दाँई ओर गणधर देवों के किया और बाँई ओर तीर्थंकर तथा गणधरों को छोड़कर बाकी बचे थे केवलज्ञानियों के किया । इस तरह इन्द्र ने पृथ्वी पर तीन तरह की वह्नि स्थापित की ||३४७ - ३४८ ।। तदनंतर सब देव और इन्द्रोने बड़ी भक्ति से जिनके पाँचों कल्याणक हुये हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव के शरीर की भस्म उठाई और "हम भी ऐसे हो यही सोचकर अपने माथे पर दोनों भुजाओं में, गले में और छाती पर लगाई । उन्होंने वह भस्म बड़ी ही पवित्र मानी और उसे लगाकर, वे धर्म के रस में डूब गये || ३४९ - ३५० ।। संतुष्ट होकर सबने मिलकर आनन्द नाटक किया और फिर उन्होंने श्रावकों को उपदेश दिया कि “तुम लोगों में से सातवें उपासकाध्ययन को पढ़नेवाले जो सात, आठ, नौ दश, ग्यारहवीं प्रतिमा के ब्रह्मचारी हैं उन्हें वे गार्हपत्य, परमाहवनीयक और दक्षिणानि ये तीन अग्निकुण्ड बनाने चाहियें और उनमें सबेरे, दुपहर तथा शाम
|| ३४३ - ३४६ ।। गँध, शरीर का अग्निसंस्कार
शरीर का अग्निसंस्कार
Adipuran
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