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Shri Ashtapad Maha Tirth
श्री भरतचक्रवर्ती ने उसी स्तूप पर सिंह-निषद्या नामक प्रासाद बनवाया। उसमें श्री ऋषभदेव से यावत् श्री महावीर स्वामी भगवन्त पर्यन्त चौबीस जिनेश्वरों की समनासिका वाली, लांछन, वर्ण और देहप्रमाण यक्ष-यक्षिणी युक्त मणिरत्नों द्वारा निर्मित भव्य चौबीस मूर्तियों में से पूर्व दिशा में दो, दक्षिण दिशा में चार, पश्चिम दिशा में आठ तथा उत्तर दिशा में दस; कुल २४ जिनेश्वर भगवन्तों की चौबीस मूर्तियाँ स्थापित
की।
इनको इस तरह स्थापित करने का कारण यह है कि- श्री अष्टापद पर्वत पर दस हजार मुनिवरों के साथ श्री ऋषभदेव भगवान् पधारे। निर्वाण भी वहीं पर हुआ तथा श्री भरतचक्रवर्ती ने आकर सिंहनिषद्या प्रासाद बनाया।
* सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र भी दक्षिण दिशा से ही ऊपर आये। * श्री महावीर स्वामी भगवान् के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी भी दक्षिण दिशा से ऊपर आये।
इसका वर्णन श्री दीपविजयजी महाराज द्वारा रची हुई श्री अष्टापदजी की पूजा में है। 'सिद्धाणं बुद्धाणं' में 'चत्तारि-अट्ठ-दस-दोय' का पाठ भी इस सम्बन्ध में साक्षी है।
श्री अष्टापद पर्वत हराद्रि, कैलाश और स्फटिक इत्यादि नाम से सुप्रसिद्ध है। सच्चिदानन्द श्री आदिनाथ शिवशंकर का धाम होने से, इसको शिवधाम भी कहते हैं। शिव कैलाशवासी कहे जाते हैं।
वर्तमानकाल में यह अष्टापद पर्वत भरतक्षेत्र से अदृश्य-लोप है। श्री ऋषभदेव भगवान् के प्रथम पुत्ररत्न भरतचक्रवर्ती ने सिंहनिषद्या नामक चैत्य-प्रासाद के द्वारों पर लोहमय यान्त्रिक द्वारपाल नियुक्त किये थे, इतना ही नहीं किन्तु इस पर्वत को चारों तरफ से छिलवा कर सामान्य भूमिविहारी मनुष्यों के लिये इसके शिखर पर पहुँचना अशक्य कर दिया था।
ऐसा करने का कारण यह था कि कालान्तर में कोई मनुष्य अपने स्वार्थ के खातिर इसको अपवित्र न कर सके। इसलिये तो स्वयं भरत चक्रवर्ती ने इसकी आठ योजन ऊँचाई के आठ भाग कर क्रमशः आठ मेखलाएँ बनवाई थीं। इसी कारण इस तीर्थ पर्वत का 'अष्टापद' नाम प्रख्यात हुआ है।
श्री सगरचक्रवर्ती के पुत्रों ने भी इस अष्टापद पर्वत के चारों ओर खाई खुदवाई और उसमें पवित्र गंगाजल भरवाया।
ऐसी इस तीर्थ की महिमा अनुपम है। प्रतिदिन प्रातःकाल में इस महान् श्री अष्टापदजी तीर्थ को तथा चौबीस श्री जिनेश्वर भगवान् को हमारा (विविध) वन्दन-नमस्कार हो।
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Shri Ashtapad Tirth