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Shri Ashtapad Maha Tirth
का सौन्दर्य, भगवान् की बाल्य-क्रीडा, पिता नाभिराज की प्रेरणा से यशोदा और सुनन्दा के साथ विवाह करना, राज्यपालन, नीलांजना के विलय का निमित्त पाकर चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण करना, छह माह का योग समाप्त होने पर आहार के लिए लगातार छह माह तक भ्रमण करना, हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ और श्रेयांस के द्वारा इक्षुरस का आहार दिया जाना, तपोलीनता, नमि-विनमि की राज्य प्रार्थना, समूचे सर्ग में व्याप्त नानावृत्तमय विजयाईगिरि की सुन्दरता, भरत और बाहुबली का महायुद्ध, सुलोचना का स्वयंवर, जय-कुमार और अर्ककीर्ति का अद्भुत युद्ध, आदि-आदि विषयों के सरस सालंकार - प्रवाहान्वित वर्णन में कवि ने जो कमाल किया है उससे पाठक का हृदय-मयूर सहसा नाच उठता है। बरबस मुख से निकलने लगता है-धन्य महाकवि धन्य ! गर्भकालिक वर्णन के समय षट् कुमारिकाओं और मरुदेवी के बीच प्रश्नोत्तर रूप में कवि ने जो प्रहेलिका तथा चित्रालंकार की छटा दिखलायी है वह आश्चर्य में डालने वाली वस्तु है।
यदि आचार्य जिनसेन स्वामी भगवान् का स्तवन करने बैठते हैं तो इतने तन्मय हुए दिखते हैं कि उन्हें समय की अवधि का भी भान नहीं रहता और एक-दो नहीं अष्टोत्तर हजार नामों से भगवान् का विशद सुयश गाते हैं। उनके ऐसे स्तोत्र आज सहस्त्रनाम स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे समवसरण का वर्णन करते हैं तो पाठक और श्रोता दोनों को ऐसा विदित होने लगता है मानो हम साक्षात् समवसरण का ही दर्शन कर रहे हैं। चतुर्भेदात्मक ध्यान के वर्णन से पूरा सर्ग भरा हुआ है। उसके अध्ययन से ऐसा लगने लगता है कि मानो अब मुझे शुक्लध्यान होने वाला ही है और मेरे समस्त कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष प्राप्त हुआ ही चाहता है। भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय का वर्णन पढ़ते समय ऐसा लगने लगता है कि जैसे मैं गंगा, सिन्धु, विजयार्ध, वृषभाचल हिमाचल आदि का प्रत्यक्ष अवलोकन कर रहा हूँ।
भगवान् आदिनाथ जब ब्राह्मी, सुन्दरी-पुत्रियों और भरत, बाहुबली आदि को लोककल्याणकारी विविध विद्याओं की शिक्षा देते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानो एक सुन्दर विद्यामन्दिर है और उसमें शिक्षक के स्थान पर नियुक्त भगवान् ऋषभदेव शिष्य - मण्डली के लिए शिक्षा दे रहे हों। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से त्रस्त मानव-समाज के लिए जब भगवान् सान्त्वना देते हुए षट्कर्म की व्यवस्था भारत-भूमि पर प्रचारित करते हैं, देश-प्रदेश, नगर, स्व और स्वामी आदि का विभाग करते हैं तब-तब ऐसा जान पड़ता है कि भगवान् संत्रस्त मानव-समाज का कल्याण करने के लिए स्वर्ग से अवतीर्ण हुए दिव्यावतार ही हैं। गर्भान्वय, दीक्षान्वय, कन्वय आदि क्रियाओं का उपदेश देते हुए भगवान् जहाँ जनकल्याणकारी व्यवहारधर्म का प्रतिपादन करते हैं वहाँ संसार की ममता - माया से विरक्त कर इस मानव को परम निवृति की ओर जाने का भी उन्होंने उपदेश दिया है। सम्राट् भरत दिग्विजय के बाद आश्रित राजाओं की जिस राजनीति का उपदेश करते हैं वह क्या कम गौरव की बात है ? यदि आज के जननायक उस नीति को अपनाकर प्रजा का पालन करें तो यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि सर्वत्र शान्ति छा जाये और अशान्ति के काले बादल कभी के क्षत-विक्षत हो जायें। अन्तिम पर्यों में गुणभद्राचार्य ने जो श्रीपाल आदि का वर्णन किया है उसमें यद्यपि कवित्व की मात्रा कम है तथापि प्रवाहबद्ध वर्णन-शैली पाठक के मन को विस्मय में डाल देती है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्री जिनसेन स्वामी और उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस महापुराण के निर्माण में जो कौशल दिखाया है वह अन्य कवियों के लिए ईर्ष्या की वस्तु है। यह महापुराण समस्त जैनपुराण-साहित्य का शिरोमणि है। इसमें सभी अनुयोगों का विस्तृत वर्णन है। आचार्य जिनसेन से उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने इसे बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखा है जो आगे चलकर आर्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ और जगह-जगह 'तदुक्तं आर्षे' इन शब्दों के साथ इसके श्लोक उद्धृत मिलते हैं। इसके प्रतिपाद्य
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Adipuran