________________
आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका
जैन सर्वज्ञताको स्वीकार करते हैं । इसी तरह श्रमण परम्परा के अनुयायी तीनों दर्शन अनीश्वरवादी हैं, किन्तु वैदिक दर्शनों में मीमांसक विशेष सब ईश्वरवादी हैं । ईश्वरवादी ईश्वरको जगतकी उत्पत्ति में निमित्तकारण मानते हैं और चूँकि ईश्वर जगतकी रचना करता है इसलिये उसे समस्त कारकों का ज्ञान होना आवश्यक है । अतः वे अनादि-अनन्त ईश्वर में सर्वज्ञताको भी अनादि - अनन्त मानते हैं । अन्य जो जीवात्मा योगाभ्यासके द्वारा समस्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करते हैं - यानी सर्वज्ञ होते हैं के मुक्त हो जाते हैं और मुक्त होते ही उनका समस्त ज्ञान जाता रहता है । अतः ईश्वर मुक्तात्माओं में विलक्षण है । निरीश्वरवादी दर्शनोंमें बौद्ध तो अनात्मवादी है, सांख्य ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानता है, अतः पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध छूटते ही मुक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जाता है । केवल एक जैनदर्शन ही ऐसा है जो मुक्त हो जानेपर भी जीवकी सर्वज्ञता स्वीकार करता है; क्योंकि उसमें चैतन्यको ज्ञानदर्शनमय ही माना गया है । सर्वज्ञतापर जोर
ऐसा प्रतीत होता है कि शुद्ध जीवकी सर्वज्ञतापर जितना जोर जैनदर्शनने दिया तथा उसकी मर्यादाको विस्तृत किया, दूसरे किसी दर्शनने न तो उतना उसपर जोर दिया और उसकी इतनी विस्तृत रूप-रेखा ही अंकित की । बौद्ध त्रिपिटकों में बुद्ध के समकालीन धर्मप्रवर्तकोंकी कुछ चर्चा पाई जाती है, उनमें जैनधर्मके अन्तिम तीर्थङ्कर निगं नाटपुत्त ( महावीर ) की भी काफी चर्चा है । उससे पता चलता है कि उस समय लोगों में यह चर्चा थी कि निगंठ नाटपुत्त अपनेको सर्वज्ञ कहते हैं। और उन्हें हर समय ज्ञानदर्शन मौजूद रहता है । यह चर्चा बुद्ध के सामने भी पहुँची थी । इससे भी उक्त धारणाकी पुष्टि होती है ।
अतः यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जैनदर्शनके सर्वज्ञतापर इतना जोर देनेका कारण क्या है ?
उसका कारण
जैनधर्म आत्मवादी है और आत्माको ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणमय मानता है । तथा उसमें गुण और गुणीकी पृथक् और स्वतंत्र सत्ता नहीं है । द्रव्य अनन्त गुणोंका अखण्ड पिण्ड होनेके सिवा और कुछ भी नहीं है । आत्माके वे स्वाभाविक गुण संसार-अवस्था में कर्मोंस आच्छादित होने के कारण विकृत हो जाते हैं । आत्माका स्वाभाविक ज्ञान और सुख गुण कर्मावृत होनेके साथ ही साथ पराधीन भी हो जाता है । १. बुद्ध चर्या, पृ० २३० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org