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अप्पा सो परमप्पा | १३
पहुँचेगा? वस्तुतः यदि कोई व्यक्ति पहले से ही स्व-स्वरूप से अनभिन्न होकर कह दे कि 'नहीं, बाबा नहीं, मैं परमात्मा नहीं हूँ, मैं तो दीन-हीन, पामर अज्ञानी आत्मा हैं,' इस प्रकार 'ना' कहने से, 'ना' में से 'हां' प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति केंचुए को दूध-शक्कर पिलाए तो वह सर्प नहीं हो सकता, वैसे ही कोई व्यक्ति पहले से ही अपने को दीन. हीन अक्षम एवं असमर्थ आत्मा मानकर परमात्म-पद प्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहे तो सफल नहीं हो सकता। सर्प का बच्चा कद में केंचुए के बराबर होने पर भी फूफकारता हआ सांप ही है। आखिरकार छोटा सांप भी तो फणिधर एवं शक्तिशाली है। इसी प्रकार वर्तमान अवस्था में कोई मानवात्मा भले ही शक्तिहीन दिखाई दे, तथापि स्वभाव से तो वह सिद्धपरमात्मा के समान पूर्णदशा वाला है ।
___वट के बीज में आज भले ही पूर्ण रूप से फला-फूला समृद्ध वटवृक्ष न दिखाई दे, किंतु उसमें पूर्ण समृद्ध वटवृक्ष होन की योग्यता मौजूद है। एक दिन वह वट-बीज पूर्ण समृद्ध वटवृक्ष बन सकता है। इसी प्रकार सामान्य आत्मा में भी परमात्मत्व का बीज विद्यमान है, वह ज्ञानादि से परिपूर्ण समृद्ध परमात्मा बन सकता है ।
आत्मा और परमात्मा का स्वभाव एक ही है इसीलिए सर्वज्ञ आप्तपुरुष कहते हैं-तू भी पूर्ण है, परमात्मा के समान है, निश्चयदृष्टि से तो परमात्मा ही है। क्योंकि तेरे (सामान्य आत्मा के) धर्म (स्वभाव) और परमात्मा के धर्म (स्वभाव) में कोई भी अन्तर नहीं है। परमात्मा का जो अनन्त ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द का स्वभाव है, वही स्वभाव शुद्ध आत्मा का है । जिस प्रकार मिट्टी के हजारों लाखों दीपक हों, उनमें ज्योति तो एक सी ही होती है। ज्योति का स्वभाव एक है । मिट्टी के दीपकों में, उनकी आकृतियों में, रंग-रूप में, कद में, छोटे-बड़े होने में, बहत ही अन्तर हो सकता है। किंतु उन दीपकों में जो ज्योति प्रज्वलित होती है, वह एक है। ज्ञानी वीतराग पुरुष कहते हैं -हे मानवात्माओ ! जो मेरे भीतर है, वही ज्योति तुम्हारे भीतर है, उसमें कोई अंतर नहीं है। तुममें और मेरे में जो अंतर है, फासला है, वह मिट्टी के दीपक के समान है। मेरा (अरिहंत प्रभु का) शरीर अलग
१ 'सिद्धस्य हि स्वभावो यः सैव साधकयोग्यता'
-अध्यात्म सार
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