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आनन्द को पगडंडियाँ | &
अज्ञान एवं मिथ्या आकांक्षा उसे अशान्ति के नरक से ऊपर नहीं उठने देता वह रात-दिन दुःखों के कुंभीपाक में सड़ता रहता है ।
वस्तुतः नरक और स्वर्ग क्या है ? अपने स्वार्थ एवं अपनो तृष्णाओं की आग को अपने दुःखों का कारण न मानकर, उसका दोष दूसरे के सिय पर रखना यह अज्ञान हो नरक है । और सत्य का स्वीकार करके उसे आचरण का रूप देना, यही स्वर्ग है । एक विचारक का कहना है कि “जब मनुष्य इस बात को स्वीकार कर लेता है कि मेरी समस्त अशान्ति और सब दुःख मेरे अपने ही स्वार्थ के कारण है, तो वह स्वर्ग के द्वार से दूर नहीं हैं ।""
स्वार्थ साधना नरक है । स्वार्थ त्याग स्वर्ग है । जब इन्सान अपने ही स्वार्थ को साधने का प्रयत्न करता है, तो वह अपने लिए और अन्य व्यक्तियों के लिए जो उसके स्वार्थ से सम्बद्ध और प्रभावित हैं, दुःख कारण बन जाता है । वह उस समय यह भूल जाता है कि मेरी तरह दूसरे के भी अपने स्वार्थ हैं, हित हैं, उनकी सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है । इसी कारण विचारकों ने कहा है
"Self is blind, without judgment, not possessed of true knowledge, and always leads to suffering."
स्वार्थ अन्धा होता है। सच्चे ज्ञान एवं यथार्थ निर्णय करने की शक्ति का अभाव होने के कारण वह सदा मनुष्य को दुःखों के सागर में ढकेलत है ।
जब मनुष्य अपने स्वार्थ को भूलकर दूसरे के हित की सुरक्षा में लग जाता है । वह निःस्वार्थ भाव से अपना प्यार दूसरों को देने लगता है, तब उसे सच्चा सुख और आनन्द मिलता है । आनन्द ही नहीं मिलता, बल्कि वह सदा-सर्वदा के लिए अमर हो जाता है । मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ एवं सच्चे
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When you are willing to admit that all your unhappiness is the result of your own selfishness, you will not far from the gate of Paradise. -Ibid The heart that has reached utter self-forgetfulness in its love for others has not only become possessed of the highest happiness, but has entered into immorality, for it has realized the Divine. --James Allen
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